मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा.....
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क्या मतलब है रोने का
जब एहसासों पर लगे हो ताले
सतह पर ही,
हो गए हैं शुमार मेरे जज़्बात
मेरे ही नन्हे आँसुओं में
आँसू, खो देती हूँ जिन में
मैं ख़ुद को.....
क्या मतलब है
चोट लगने का
जब खरोंचे दी हुई हो उनकी
जो नहीं जानते तुम को
हालाँकि देखा है जिन्होंने
बड़ा होते तुम को,
मतलब क्या है
तुम भी कहीं करते हो महसूस
प्यार उनका
मगर जो नहीं जानते तुम्हारे
वास्तविक आंतरिक रूप को.....
जब भी हुआ करती हूँ मैं
सोये हुई गहरी
देने लगती हूँ उलाहने
तुम्हारी जगह रख कर ख़ुद को
हालाँकि तुम को तो
नहीं होती शिकायत
कभी भी किसी से,
दौड़ जाती हूँ मैं
एक सुनहरे हरे निखलिस्तान में
जहाँ पाती हूँ तुम को
बाँट लेने के लिए
मेरे संग सच्चे प्यार को
मगर जाग जाती हूँ फ़िर से
तो पातीं हूँ अकेला ख़ुद को....
चमकाओ ना बिजली
ले आओ ना बरसात,
नहीं होती ना सच्ची ज़िंदगी
बिना ज़रा सी पीड़ा के
चल मैं ही बन जाती हूँ बिजली
मैं ही हो जाती हूँ बरसात
जान गयी हूँ ना मैं भी अब रोना
इसीलिए रह लूँगी
गुज़र कर बेइंतेहा दर्द से.....
करती हूँ स्वीकार
लगी है जो चोट मेरे अंतर को
अंतर्द्वंद ही कराएँगे मुझे मुक्त उससे
चाहिए मुझे थोड़ा दर्द संग ख़ुशियों के
लिखने के लिए मेरे दिली एहसासों को,
नहीं है मुझे ज़रूरत
समझो तुम मेरी टूटन को
बस जान लो सिर्फ़ इतना
मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा
बिसरायी हुई धड़कनों के साथ....
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