मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा.....
+++++++++++++++++
क्या मतलब है रोने का
जब एहसासों पर लगे हो ताले
सतह पर ही,
हो गए हैं शुमार मेरे जज़्बात
मेरे ही नन्हे आँसुओं में
आँसू, खो देती हूँ जिन में
मैं ख़ुद को.....
क्या मतलब है
चोट लगने का
जब खरोंचे दी हुई हो उनकी
जो नहीं जानते तुम को
हालाँकि देखा है जिन्होंने
बड़ा होते तुम को,
मतलब क्या है
तुम भी कहीं करते हो महसूस
प्यार उनका
मगर जो नहीं जानते तुम्हारे
वास्तविक आंतरिक रूप को.....
जब भी हुआ करती हूँ मैं
सोये हुई गहरी
देने लगती हूँ उलाहने
तुम्हारी जगह रख कर ख़ुद को
हालाँकि तुम को तो
नहीं होती शिकायत
कभी भी किसी से,
दौड़ जाती हूँ मैं
एक सुनहरे हरे निखलिस्तान में
जहाँ पाती हूँ तुम को
बाँट लेने के लिए
मेरे संग सच्चे प्यार को
मगर जाग जाती हूँ फ़िर से
तो पातीं हूँ अकेला ख़ुद को....
चमकाओ ना बिजली
ले आओ ना बरसात,
नहीं होती ना सच्ची ज़िंदगी
बिना ज़रा सी पीड़ा के
चल मैं ही बन जाती हूँ बिजली
मैं ही हो जाती हूँ बरसात
जान गयी हूँ ना मैं भी अब रोना
इसीलिए रह लूँगी
गुज़र कर बेइंतेहा दर्द से.....
करती हूँ स्वीकार
लगी है जो चोट मेरे अंतर को
अंतर्द्वंद ही कराएँगे मुझे मुक्त उससे
चाहिए मुझे थोड़ा दर्द संग ख़ुशियों के
लिखने के लिए मेरे दिली एहसासों को,
नहीं है मुझे ज़रूरत
समझो तुम मेरी टूटन को
बस जान लो सिर्फ़ इतना
मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा
बिसरायी हुई धड़कनों के साथ....
|
Sunday, 23 December 2018
मैं आऊँगी निकल कर ज़िंदा : विजया
Saturday, 22 December 2018
सुलगते उलाहने,,,,,,
सुलगते उलाहने,,,,
########
खुले हैं आज
बरसों से दराजों में बन्द
दस्तावेज़....
छोड़ा था जिस दिन
तुम ने मुझको
छोड़ दिया था मैं ने भी तुम को,
फिर भी ना जाने क्यों
बार बार सुन रहा था तुम को
यह कहते हुए
लौट आना चाहिए मुझ को
फिर से तुम्हारे पास,
करना चाहिए मुझे भरोसा तुम्हारा
नहीं करता मैं अगर ऐसा
तो कहा जाता यही ना
रचा बसा है अहम मुझमें
हाँ यह बात जुदा है कि
तुम्हीं ने तो जगाया था
उस शैतान को मुझ में,,,,
घुस गया था मेरे दिलोज़ेहन में
वो शैतान ऐसा
थोपते हुए अपने इरादों को मुझ पर
करते हुए दूषित मेरी अच्छाइयों को
मेरी उन सारी अच्छाईयों को
जो रख छोड़ी थी सर्वोपरि मैंने
तुम्हारे मेरे प्रेम की ख़ातिर,
लगा था नोंचने जैसे ही वो
मेरे पंखों को
लगा दिया था तुम ने
महिमामण्डन का घेरा
इर्दगिर्द मेरे
ताकि बना रहे सबब
मेरी बुराइयों को लगातार
याद दिलाते रहने का,
नोंच डाले थे उसने मेरे पंख सारे
तब तक बन गया था ताक़त
मेरे उड़ने की खुशफहमियों की
निरंतर मेरे अहम को पोषना तुम्हारा,,,,,
नहीं जानता मैं सचमुच अब
कैसे करूँ दिल से मुआफ़ तुम्हें
नहीं जानता मैं यह भी कि
कर सकूँगा ऐसा या नहीं,
नहीं हो ना तुम
मेरी मोहब्बत से परे
किसी भी कलंक से ऊपर
दूर मेरे उलाहनों से,
ज़ायज है मेरा ग़ुस्सा भी
वाजिब है मेरी कोफ़्त भी
लाज़िमी है मेरा दुखी होना भी
सच बात तो यह है
मुझे ख़ुद को
उस अहम के पिशाच से
आज़ाद करने के लिए
होना होगा आज़ाद
तुम्हारे ख़यालों से,
भुलाकर सारे उलाहने
शिकवे और शिकायतें
जो रख छोड़े हैं सुलगते से मैंने
तब से तुम्हारे लिए,,,,
Thursday, 20 December 2018
मुझ को जैसे : विजया
मुझ को जैसे....
++++++++
ख़याल आते हैं मुझे
कुछ थमे थमे से
मेरे बन्द होंठों के पीछे
हो कोई क़ैद जैसे....
मेरा स्पर्श
कर पाता है क्या
पुलकित तुम को
कर देती है रोमांचित
छुअन तुम्हारी
मुझ को जैसे...
क्या मेरी तपती मुस्कान
पिघला पाती है
उस बर्फ़ को
जमी है जो
इर्द गिर्द तुम्हारे दिल के,
गरमाहट तुम्हारे तबस्सुम की
पिघला देती है
मुझ को जैसे .....
किसी ग़ैर के अधरों पे
मेरे नाम की आवाज़
जगा देती है क्या
तुम्हारे सोये कोनों को,
हो जाता है जगराता सा
दिलो जिस्म में
मुझ को जैसे....
क्या देता है मेरा होना
सुख-चैन तुम को,
देता है सुकून
साथ होना तुम्हारा
मुझ को जैसे....
ख़याल आते हैं मुझे
कुछ थमे थमे से
मेरे बन्द होंठों के पीछे
हो कोई क़ैद जैसे....
मेरी रूह,,,,,
थीम सृजन
======
(ख़यालों का सफ़र)
मेरी रूह,,,,,
######
कह दिया था उसको मैंने,
मेरी रूह है
एक अगाध कुआँ ,
जहाँ रहते हैं ख़याल
पेचीदे से
फलती फूलती है
बुरी बुरी बातें
जैसे कि विचार
उत्पीड़न के
पीड़ा के
स्वामित्व के
स्वार्थ के
प्रतिशोध के
सिर्फ़ लेने के....
बताया था उसको
ऐसे ऐसे ख़यालों के बारे में
पगला दे जो
सामान्य मानव को,,,,,
बोली थी वो
मापनी है मुझे तो
गहराई इस कुँए की,,,,
नहीं घबरायी थी वो
सुनकर,
चल कर देख लो
इस कसे हुए रस्से पर
नटनी की तरह
पंजों के बल
कुंऐ के आर पार,
हाँ गिर पड़ी अगर तो
पाओगी और कुछ नहीं
सिवा इन सब ख़यालों के,,,,
हाँ कहा था यह भी मैंने
उसी साँस में,
नहीं मानती तुम तो
लगाओ ना छलाँग
कर लो महसूस
गिरने के आतंक को
जो होगा महसूस
पीठ पर उबलते हुए पानी की जलन सा
सोच लो
नहीं है दिल मेरा सोने जैसा,,,,
दी थी चेतावनी उसको,
यह रूह मेरी है आग की तरह
हिंसक और ऊष्ण
और मैं हूँ एक अधूरा इंसान
जो सींवन पर
करता है महसूस
फटा हुआ,
खोपड़ी जिसकी भरी है
बुरे बुरे सपनों से
परित्यक्त सोचों और अचम्भों से
जो नहीं स्वीकारती किसी को भी
जो दिल को दिल से प्यार करे,,,,,
साफ़ किया था उसको,
चूँकि तुम हो यहाँ
तुम को मज़े तो नहीं होंगे
मगर मैं ले आऊँगा ज़रूर
मुस्कान तुम्हारे अधरों पर...
हँसा भी दूँगा
उन सब बातों के लिए
डरती हो तुम
जिनका सामना करने में,
वैसे मेरी आत्मा है
एक हतोत्साहित करने वाली जगह !
और ना जाने क्या सोच कर
कूद पड़ी थी वो अचानक,
डूब गयी थी कुँए में
तैरना तक भूल कर,,,,,,
Monday, 17 December 2018
मेरी मर्ज़ी : विजया
मेरी मर्ज़ी....
++++++
करते हैं हम बहुत कुछ
अपने दिलो ज़ेहन के ऊपर
कभी किसी की ख़ुशी के लिये
जो होता है अपना,
कभी किसी के कहने से
जिस पर करते हैं भरोसा,
कभी किसी मज़बूरी से
नहीं होता जो कोई चारा,
कभी इस सोच के साथ भी
क्या कहेंगे लोग ?
सुनते हैं ये बेबाक़ इजहार
"मेरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी"
उन मुँहों से जो शायद
नहीं समझ पाते
ज़िंदगी नहीं है नाम
बस अपनी मर्ज़ी का करने का,
हर अनचाहा हो जाना
होता नहीं सबब यल्ग़ार का,
इंक़लाब नहीं सरकशी है
आँख मूँद कर ख़िलाफ़त करना,
आज़ादी बिना ज़िम्मेदारी के
नासूर है अना के लगाए ज़ख़्म का
नहीं कहती मैं
सहे जाए हम ज़ुल्मों सितम ज़माने के
मगर रुक कर सोच तो लें
बसा है ख़ुशियों का ज़हान
उस सिरे से आगे
जहाँ से हुआ करती है शामिल
बिना किसी दलीलो-मन्तिक और जवाज के
मर्ज़ी 'उसकी'
कभी हमारी मर्ज़ी के साथ
कभी हमारी मर्ज़ी से कहीं आगे...
(सबब=कारण, यल्ग़ार=आक्रमण, इंक़लाब=क्रांति, सरकशी=उद्दंडता/बलवा, अना=Ego, ज़ख़्म=घाव, नासूर=हमेशा रिसने वाला घाव जो कभी भी ठीक नहीं होता, सिरा=बिंदु/point, दलील=argument/तर्क, मन्तिक=युक्ति/logic, जवाज़=औचित्य/justification)
आख़िर हैं ना सिपाही हम,,,,
शब्द सृजन
======
(इज़हार)
आख़िर हैं ना सिपाही हम सब,,,,
#############
"नामालूम कितने दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को"
करता हूँ महसूस इतना गहरा
किसी के इस इज़हार को
दगते रहते हैं जिस से ये अल्फ़ाज़
मेरे जिस्म की हरेक नस से,,,,
सोचता हूँ बार बार
हम में से ना जाने कितनों ने
किया होगा महसूस
कुछ ऐसा ही,,,,
ना जाने कितनी रातों
लड़ते रहे हैं हम
ख़ुदकुशी के सोचों से
काट डालने के आवेग से
रेचन की उत्कट अभिलाषा से
भाग जाने की प्रवृति से
छुप जाने की ललक से
अकेले ही
क्योंकि भयभीत हैं हम
हमारे ही 'अपनों'की परेशानी से,,,
ना जाने कितने ही
दिन और रात
रहे हैं हम प्रताड़ित
हो कर कैद
अपने ही अंधेरों में,,,,,
लड़ा करते हैं हम जैसे लोग
ऐसे समर
नहीं ले पाता है कोई भी
थाह जिनकी
नहीं देख पाता कोई भी
इन लड़ाइयों को,
सच तो यह भी है
हम भी तो नहीं करते
ज़ाहिर इसको
सामने किसी के भी,,,
लड़ा हूँ मैं ख़ुद भी
बचाया है मैंने ख़ुद को भी
बहुत सी लम्बी रातों में
बिलकुल अकेले,
हुआ करती थी
ऐसी भी रातें
जब हार जाता था मैं
खुद अपनी ही जंग में
मगर उठता था फिर से
जीने को ,लड़ने को
किसी ना किसी तरह,,,,,
अनुमान है मुझ को
कैसे रखते हैं हम
चलायमान स्वयं को
क्योंकि जितनी बार भी
होते हैं रणछोड़ हम
उभर आते हैं
और अधिक सबल होकर,,,,
भिड़ते रहते हैं
स्वयं के सोचों से,
कमजोरियों से,
हम सब
हराते भी रहते हैं ख़ुद को
उस आख़िरी मक़ाम तक
जब तक नहीं हो जाते माहिर
ख़ुद को बचाये रखने के लिये
ख़ुद को बनाये रखने के लिये,
आख़िर है ना सिपाही हम सब,,,,
"नामालूम कितनी दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को...."
आज इस रात,
बता पा रहा हूँ सब कुछ तुम को,,,,
बचाया है मैं ने ख़ुद को,
तुम भी तो हो यहीं
पढ़ रहे हो मेरे इस बयां को
क्योंकि बचाया है
तुम ने भी तो ख़ुद को,
आसान नहीं है ना
ज़िंदा रख पाना ख़ुद को,,,,
फ़ख़्र हैं मुझे तुम्हारी बहादुरी पर,,,,,
Friday, 14 December 2018
जीवन को फिर से जी लें : नीरा
जीवन को फिर से जी लें....
++++++++++++++
हँस बोल कर आओ
ये पल हम गुज़ार दें,
बेरंग सी हो इस ज़िन्दगी में
रंग इन्द्रधनुषी भर कर,
होठों पे सज़ा ले तबस्सुम
हँसलें और हँसा दें
वक़्त की सुई को
कुछ देर और थाम कर,
यादों की डायरी से उठा कर
खोये कुछ पल जी लें फिर से,
अनकहे ख़यालों को
लफ़्ज़ों में पीरो कर,
हो गया राख आशियाँ
ज़रूरतों की आग में जल कर
जगा लें फिर से अरमां
नयी सी मुलाक़ात कर,
बना लें तस्वीर ख़ूबसूरत
जीये हुये हर पल छिन की
हासिल कर लें एक केनवास
यादों के टुकड़े सजा कर,
संगीत फिर रचा लें
धुन दिलकश बना लें
गीतों को नये सुर दें
महफ़िल नयी सजा कर,
जीवन को फिर से जी लें
सोलह सिंगार कर लें
यादों की संदूकची से
ज़ेवर अपने निकाल कर....
नीरा २०१८
❤️❤️
हर मंज़र आना जाना है ,,,,,,,
हर मंज़र आना जाना है,,,,,
#######
बोलों में एक तराना है
ख़ामोशी में भी तराना है
सुन लो तुम यह गीत मेरा
एहसास का एक यगाना है,,,
गुज़ारिश बादेसबा से है
दामन को हवा दे देख देख
आतिश ख़ुद में ही जज़्ब किये
एक जला हुआ परवाना है,,,,
मस्जिद मंदिर और ख़ानख़ाह
सब एक है मुझ पर अब यारों
मैं हुआ हूँ तब से आवारा
छोड़ा जब से मैखाना है,,,,
पलकें चूमे रुख़सारों को
गेसू लहराये घटा हो ज्यों
ये हुस्न है मौजू नज़रों का
हर मंज़र आना जाना है,,,,,
अपनों से उम्मीदें क्यों हो
कब गुहर सदफ के काम आया
भरम महज़ मन का है ये
कोई अपना कोई बेगाना है,,,,
मुझपे जो कर्ज़ हुआ करते
कब के तो वो बेबाक़ हुये
दर पर दस्तक हर रोज़ है क्यों
बाकी अब क्या अफ़साना है,,,,,
(बादेसबा=पुरवाई, खानखाह=आश्रम, यगाना=स्वजन, बेबाक़=चुकता, सदफ=सीप, गुहर=मोती)
शाश्वत लहरें
शाश्वत लहरें
#######
खींच लेता हैं
एक अजीब सा असर
मेरे दिल को
दूर समंदर की तरफ़,
आती जाती रहती है मन में
सीगल्लों के
क्रँदन की आवाज़ें,,,,,
बनी रहती है जीवन में
शाश्वत लहरों की दास्तान
रगड़ते पीसते हुये चट्टानों को
रेत को ले जाते हुये
कटार सी तीव्र समुद्री हवाओं के बीच
रखते हुये विद्यमान फिर भी
शांति और प्रेम
उपद्रवों और अस्तव्यस्तता के बीच,
और हिजरी है फ़िट
सागर और तट की भिड़ंत
दस्तानों जैसी ही,,,,,
बाँट देता है संगीत मुझे
दो अविभाज्य हिस्सों में
बस यही तो गाथा है मेरी
बिलकुल खाड़ी जैसी ही,
रखूँगा किंतु मैं संजोकर
अपनी रूह में वो तराना
जो बजता रहा था
सागर किनारे,,,,,,
सुन सकता हूँ आज भी मैं
उन लहरों को जो
टूट गयी थी तट को छूकर,
माना कि
मैं चला आया हूँ बहुत दूर
फ़िर भी पहुँच ही जाती है
वो ही समयातीत लहरें
मेरी यादों का अवशेषों बन कर,,,
कटु तराना : विजया
कटु तराना
*******
क्या हम सब
नहीं है भयातुर
पीड़ा से,
कटु सत्य है यह
सो नहीं पाते हम
धड़कते कांपते
सोचों के स्पंदनों से
जो बनाये रखते हैं
अनसोये हम को,
यही तो है ना
अनिद्रा का कटु तराना
एक बिन भूला अफ़साना....
अनिद्रा=insomenia
Thursday, 13 December 2018
ले चल साथ मुझे : विजया
थीम सृजन
(अंधेरे उजाले)
********
ले चल मुझे अपने साथ...
++++++++++
ले चल मुझे
अपने साथ,
उन सपनों तक
जो छूते रहते हैं
तुम्हारे दिन को,
उन रंगों तक
जो भर रहे हों
तुम्हारी आँखों को,
उन लमहों के
उजालों तक
जो रोशन करते हैं
तुम्हारे दिल को,
मैं प्यासी हूँ
उस अमृत की
जो बह रहा है
तुम्हारे दिल की
गहराइयों में.....
ले चल मुझे
अपने साथ,
अपनी रातों के
उन अंधेरों तक भी
जो गुम है तुम्हारे
वजूद में,
नवाजों मुझे
अपने दर्द
अपनी मासूमियत
अपनी तकलीफ़ों के
अफ़सानों से....
ले चल मुझे
अपने साथ,
ख़रगोश के बिल सी
अपनी संकीर्णता तक
और फ़िर
अपनी आसमान सी
विशालता तक,
ताकि समझ सकूँ
मैं तुम को
और ज़्यादा....
मैं चाहती हूँ देखना
कैसे तुम्हारी
व्याकुल रूह
हो जाती है स्थिर और शांत,
देखना है मुझे
कैसे समा लेती है
तुम्हारी आँखें
हर अंधेरे और उजाले को
ख़ुद में.....
बरस रही है
मेरी आँखें
दुख से नहीं,
महसूस कर के
एक आनन्द
सुख और शांति को
जो तेरे साथ होने के
एहसासों का है....
|
अन्धेरे उजाले
अंधेरे उजाले
#######
कितने अंधेरे हैं ये
बाहर के उजाले,
चकाचौंध में जिनकी
बन्द हो जाती हैं आँखें
मैं लगता हूँ खोजने उनमें
इन्हीं बंद आँखों से
वही सब कुछ
जो मेरे अवचेतन के किसी कोने में
बसे हैं
बार बार नज़रसानी के बावजूद भी,,,,,
भीतर के उजालों में
खुली आँखों से
देखते ,जानते ,समझते हुए भी
नहीं निकाल बाहर करता मैं
उन सबको जो बेमानी से हैं,,,,,
सजा देता हूँ फिर से
निरख कर
महसूस कर
करीने से पोंछ कर उनको
अपने वजूद के छोटे से कोने में,
जहाँ मिलता है अंधेरे से उजाला
देते हुये पहचान समग्रता की
भेद और विभेद के परे,,,,,
शायद यही तो है 'इंसान' होना
शायद यही है 'भगवान' ना होना,,,,
Thursday, 6 December 2018
जानलेवा घाव : विजया
जानलेवा घाव
++++++++
कुछ यादें होती है
स्क्रीन शॉट
उस पल की घटनाओं का
जब वो घटित होती है
सब छोड़ चुके होते हैं जगह
मगर
हमारी ज़ख़्मी अना
पग जमाये
डट कर खड़ी होती है....
कहाँ थमा है वक़्त
किसी के इंतज़ार में
हालात ने
किया है लिहाज़ कहाँ
किसी के सरोकार में,
चिपकाए रखते हैं
सीने से
उन मर चुकी यादों को
ज्यों फिरती है बंदरिया
चिपकाए हुये छाती से
अपने मरे हुये बच्चे को....
नतीजा होता है
जानलेवा घाव
बदबूदार मवाद भरा,
काश छोड़ पायें हम
देखना माज़ी को
आतिशी शीशे से
लिए हुये बौझा
अधूरेपन का
एहसासे कमतरी का
बिगाड़ देता है जो
आज को भी
कल को भी....
Wednesday, 5 December 2018
रूह से मिला दिया : विजया
रूह से मिला दिया...
++++++++++
तेरी छुअन ने कुछ ऐसा
जादू जगा दिया
जिस्मो ज़ेहन को तुम ने
रूह से मिला दिया....
जानती थी तुझको
ज्यों अजनबी कोई
छूकर के मुझको तुमने
अपना बना लिया.....
ख़ामोशियाँ होती है
ज़ुबान जिल्दों की
सरग़ोशियाँ ऐसी हुई
नग़मा बना दिया...
महबूब हो मेरे
मगर संगतरास हो
पत्थर की परतें खोल कर
अरमाँ जगा दिया...
गरम आग़ोश तुम्हारे
पिघलाते रहे मुझे
पानी थी मैं मामूली
अमृत बना दिया...
मेरे हर ज़र्रे में
समाये हो जानेजाना
छुआ जो वजूद मेरा
जन्नत बना दिया....
तोहफ़ा हसीन पाकर
हूँ आसमां पर मैं
शुक्रिया मोहब्बत का
दिल से सुना दिया.....
तुम्हारे इन हाथों ने
सहेजा है इस क़दर
बिखरी हुई माटी को
मूरत बना दिया..
तेरी नज़रों के साये में
रूखसती मुझे मिले
दम आखिरी को ऐसा
मर्हला बना लिया....
जिल्द=skin, मर्हला=मंज़िल, रूखसती=छुट्टी(यहाँ मौत के सेन्स में)
Monday, 3 December 2018
साथ यहीं-अभी : विजया
साथ यहीं-अभी....
+++++++++
नज़र के सामने हो, फिर भी
आँखों से ओझल लगते हो
हो तुम साथ यहीं-अभी
बीते पल से क्यों लगते हो....
मंदिर के परिसर में क्यों
ख़ुद देव तुल्य ही दिखते हो
मूरत ज्यों तुम को देख रही
ध्यानी अचल से लगते हो...
चंचल बन क्रीड़ा करते हो
कभी मौन गहन तुम धरते हो
कभी दिखते सागर ठहरे से
कभी बहते जल से लगते हो....
तेरे इन सारे रूपों में
नन्हे मासूम से दिखते हो
जिस साँचे में मैं चाहती हूँ
बेझिझक उसी में ढलते हो....
छलिया मायावी तुम कितने
भ्रम सदा बनाये रखते हो
जिस जिस से जुड़ जाते हो
ख़ुद को अटकाये रखते हो....
पीड़ा ख़ुद की पीकर तुम
सब घाव सहलाते रहते हो
समझ सकूँ कैसे तुम को
कठिन सबक़ से लगते हो...
सहज हो तुम इतने प्रीतम
ख़ुद ही सोच ना पाती हूँ
जटिल भी हो उतने ही
समझ नहीं कभी पाती हूँ ....
जो भी हो तुम मेरे हो
नज़रों में समाये रहते हो
मन मन्दिर अपने में साजन
तुम मुझे बसाये रखते हो....
रिश्तों में भी : विजया
रिश्तों में भी.....
+++++++
आया था पैग़ाम
बहुत ग़मज़दा है वो
आँसू है कि थम नहीं रहे
खाना नहीं खा रहा
गुमसुम है
खोई खोई नज़रों से
ना जाने क्या
देखे जा रहा है....
लगा लिया था गले से मैं ने
शायद मेरा प्यार भरा आग़ोश
पिघला दे उसकी उदासी को
जो जम गयी थी अंदर उसके
बर्फ़ की कड़ी चट्टान बन कर,
वरना मेरा चुलबुला सा
शरीर मासूम
ऐसा तो नहीं है....
पूछा था मैंने हुआ क्या ?
"कुछ नहीं"
यही तो होता है पहला जवाब
फिर खोदने से आती है
असलियत जुबाँ पर
ना भी आये
मुनहसिर है सब कुछ
कुदाल की नोक पर
खोदने वाले की कुव्वत पर....
हैम्स्टर ने दिये थे बच्चे
खा गयी थी माँ दो को
गटक गया था बाप एक को
सुना था मैंने यह भी कि
एक ही माँ की औलाद थे
नर और मादा.....
बेहद जुड़ गया था ना वो
अपने नन्हें दोस्तों
जूलीऔर जान से,
नाजों से रखता था उनको
मादा हुई थी जब हामला
रहता था इंतज़ार
नये मेहमान के आने का
तोड़ के रख दिया था
जो भी हुआ उसने
एक मासूम दिल को.....
हिला दिया था
मुझ को भी
उसके उस मासूम सवाल ने
दुनिया भर की दवाओं की रीसर्च में
आजमाईस की जाती है ना हैम्स्टर पर
बहुत कुछ मिलता जुलता है ना
इंसान का इनसे
क्या रिश्तों में भी ?
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हैम्स्टर(hamster): एक नन्हा सा प्राणी जो जिसकी शक्ल चूहों/भालू से मिलती है....लोग पालते है.https://en.m.wikipedia.org/wiki/Hamster
मुनहसिर=निर्भर, कुव्वत=ताक़त, हामला=गर्भवती .