Thursday, 26 February 2015

सोलह सिंगार (आशु रचनाएं)

सोलह सिंगार 
१)
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बहिरंग 
और
अन्तरंग
जब हो
एक रंग
घटित तब
दिव्य सौन्दर्य
होते हुए
सोलह सिंगार से,
परे किन्तु
सोलहों सिंगारों से..
२)
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काया को
लगाकर उबटन
किया है स्नान
अवधारण
स्वच्छ वस्त्र
संवरी केश राशि
वेणी में सुवासित
पुष्पों का गजरा
चितवन आकर्षक
सजा है
नयनों में कजरा
मांग में मोती
सुमन या सिंदूर
खिला रहे हैं देखो
यौवन अप्रतिम नूर
भाल पर तिलक
चिबुक पर तिल
है मुख मंडल
झिलमिल झिलमिल
हाथों में है सुरंगी
मेहंदी जो रचाई,
सुगढ़ गात में
महक इत्र की समाई,
नख-शिख आभूषणों ने
छटा है निखराई,
फूलों का गलहार
दन्त द्युति
मिस्सी से चमकाई
मोहक अधरों पर विराजे
पान की ललाई
पांवों में महावर
पायल है खनकाई
कर सोलह सिंगार
नार यूँ क्यूँ है इतराई,
प्राकृतिक सम गुणसूत्रों को
ना जाने क्यूँ बिसराई ?
३)
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नर संलग्न
लुभाने मादा को
नृत्य से
आखेट से
निर्माण से
सृजन से
श्रृंगार से
चपलता से
पूरा करने अभाव
असम गुणसूत्रानुपात का
खेल यह
प्रकृति जनित
किन्तु विचित्र
विषय गूढ़
चिंतन एवम
आत्मसात का..
४)
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बाह्य सब कुछ
अंतस खाली.
प्रेम ने ह्रदय में
एकत्वता जगाई
बिखरा था श्रृंगार
पिघला था पौरुष
आत्मा ने देह पर
विजय श्री जब पाई ...

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