अर्पण
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त्याग,
दान,
अर्पण
शब्द तीन
होतें है प्रतीत
समानार्थक,
करतें हैं बात
तीनो
देने की.
त्याग में
छोड़ा जाता
स्वामित्व
निज का
किन्तु
नहीं होता
संकल्प
फिर होगा
स्वामित्व
किसका ?
दान में भी
छोड़ा जाता
स्वामित्व
किन्तु
उत्पन्न
किया जाता है
स्वामित्व
किसी अन्य का,
रहता है ऊपर
दाता का हाथ
होता है नीचे
हाथ प्रापक का ,
यह स्थिति
ऊँच नीच की
ले आती है
भाव
अहंकार का.
अर्पण में
होती है
वस्तु
अंजुरी में
होता है
सहज समर्पण,
सहित भाव
अनुग्रह के
प्रापक के
प्रति,
ओत-प्रोत
श्रृद्धा एवम्
सम्मान से.
घटित हो
भाव,
सर्वस्व है
प्रभु का
नहीं कुछ
मेरा अपना,
स्वामित्व
केवल
भ्रम है मेरा,
तेरा कर रहा
अर्पण तुझको,
करो मुक्त मुझे
हे प्रभु !
मिथ्या ममत्व से.
(गीता के नौवें अध्याय के श्लोक २७ से प्रेरित)
त्याग,
दान,
अर्पण
शब्द तीन
होतें है प्रतीत
समानार्थक,
करतें हैं बात
तीनो
देने की.
त्याग में
छोड़ा जाता
स्वामित्व
निज का
किन्तु
नहीं होता
संकल्प
फिर होगा
स्वामित्व
किसका ?
दान में भी
छोड़ा जाता
स्वामित्व
किन्तु
उत्पन्न
किया जाता है
स्वामित्व
किसी अन्य का,
रहता है ऊपर
दाता का हाथ
होता है नीचे
हाथ प्रापक का ,
यह स्थिति
ऊँच नीच की
ले आती है
भाव
अहंकार का.
अर्पण में
होती है
वस्तु
अंजुरी में
होता है
सहज समर्पण,
सहित भाव
अनुग्रह के
प्रापक के
प्रति,
ओत-प्रोत
श्रृद्धा एवम्
सम्मान से.
घटित हो
भाव,
सर्वस्व है
प्रभु का
नहीं कुछ
मेरा अपना,
स्वामित्व
केवल
भ्रम है मेरा,
तेरा कर रहा
अर्पण तुझको,
करो मुक्त मुझे
हे प्रभु !
मिथ्या ममत्व से.
(गीता के नौवें अध्याय के श्लोक २७ से प्रेरित)
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