Tuesday 5 August 2014

भादो बरस रहा है.......(अंकितजी)

भादो बरस रहा है........
# # # # #
आओ प्रिय !
द्वार के पट खोलो
भादो बरस रहा है.

सकुचा रहा हूँ
मैं  यूँ ही खड़ा,
देख रही हो
तुम उस खिड़की से
जिसे तू  ने साँसों
के लिए खुला रख छोड़ा  है
? ? ? ? ?.

मैं तो भ्रमित था
मेरे बसंत के
पटों को तेरे अहम की
आँधी गिरा चुकी होगी
वृक्ष  से---
खिला चुकी होगी तू 
नयी कोंपलें
और कर रही है
प्रतीक्षा
अपने नव मन -मीत का
हृदय का ‘वातायन’
खोले.

आज खड़े देखा है
तुझको  प्रिय !
नितांत अकेला
नयन
बिछाए इस खिड़की पर
लेते हुए वही साँसे
जो कभी होती थी
सांझा
तेरी और मेरी.

मान लेता हूँ
तुम सच हो और
नहीं रही तुझ  में
अब जीने की लालसा.
फिर क्यों खुली है यह
खिड़की………
उन सांसो के लिए
जो अब  नहीं है
तुम्हारी आवश्यकता ?

हठ * छोड़ो
ज़रा हृद्य को
नयनों में लाओ.
मैं व्याकुल हूँ
तड़फ़ रहा हूँ
पाने फिर से तेरा साथ,
आओ प्रिय!
द्वार के पट्ट खोलो
अब  भी
भादो बरस रहा है.


*ज़िद्द .

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