Tuesday, 5 August 2014

क्यों खिलता है फूल : (नायेदाजी)

क्यों खिलता है फूल 
# # #
उस दिन हो गयी थी
मुलाक़ात मेरी
फूल से,
पूछ बैठी थी मैं,
ए दोस्त !
खिलते क्यों तुम ?
जिज्ञासा थी
सवाल में मेरे
आश्चर्य
और
ईर्ष्या भी...

सहजता से पूछ लिया था
फूल ने भी मुझ को,
"बताओ
तुम भी क्या सोचती हो -
मैं खिलता हूँ क्यों ?"

जैसा कि होता है,
हमारे बेमानी,
या
बेमायने वाले सवाल
और
अपने दिमाग में,
पहिले से भरे जवाब
होते हैं अक्स
हमारी सोचों के,
कह डाला था मैंने भी :
तुम खिलते हो
दूसरों को
देने के लिए
खुशबू...

फूल ने 'ना' में हिलाया था
सिर,
बोला था :
तब तो मुझे
खिलने के लिए,
किसी और का
करना होगा इंतज़ार,
या
रखना होगा उसको
हर वक़्त
अपने तस्सवुर में,
या होगा स्वीकारना ,
उस फानी शै का
अस्तित्व,
क्या मेरा खिलना
नहीं हो जायेगा
निर्भर उस पर ?
उसके ना होने के
एहसास से
रुक ना जायेगा
मेरे खिलने का क्रम ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो
और कहो.

कहा था फिर मैंने :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
कोई इनाम...

फूल ने फिर 'ना' में
सिर हिलाया था,
बोला था फूल :
नहीं खिलता मैं
पाने हेतु
कोई पद्म पुरष्कार
या
वीर चक्र ,
मिलतें है वे तो कुछेक को ,
जब कि खिला करते हैं
फूल तो सारे,
कैसे होगा यह चयन?

बोला था फिर फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

मैंने कहा था :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
जग़ में
इज्ज़त और औहदा.
फूल ने एक बार फिर 'ना' में
हिला दिया था सिर अपना.
बोलाथा :
मुझे एहसास है
जनम के साथ ही
अपने
अल्प आयुष्य का ,
मुझे तोडा जाना है,
या गिर जाना है
मुरझा कर,
फिर
कैसी इज्ज़त ?
कैसा औहदा ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

जवाब दे चुका था
धैर्य मेरा ,
फूल के सटीक बयानों ने,
कर दिया था पस्त उसने
हौसला मेरा...
मगर सच को
जानने की उत्कंठा,
दे रही थी
हिम्मत मुझ को..

कहा था मैंने :
फिर क्या है मकसद
खिलने का तुम्हारे ?
क्या तुम हिलते डुलते हो
बिना मकसद के
इंसानों की तरहा ?
और खिलते हो
बस यूँ ही ?

फूल मंद मंद मुस्काया,
मुझ को भी थोडा चैन आया,
फूल ने कहा था झूमते हुए :
मैं अपने आनन्द,
अपनी मौज,
अपने सुकून में खिलता हूँ,
तुम्हारी बात में भी
आधा सच है,
मैं बिना मकसद खिलता हूँ,
मेरे खिलने में
'के लिए' नहीं'
बस 'में' है,
मैं खिलता हूँ जीने के जज्बे में ,
मैं खिलता हूँ मरने की मुक्ति में,
अंतिम सत्य जान चुका हूँ मैं,
इसलिए
दोस्त !
मैं खिलता हूँ
अपने दीवानेपन में...

मैं तबसे
'के लिए'
और
'में', के
रहस्य को जानने,
करने और होने के
भेद को आत्मसात करने,
समग्र स्वीकृति को अपनाने,
और
साक्षी भाव को हासिल,
करने के क्रम में,
खिले हुए फूल की,
संगत में,
मुझ जैसे बहुतों,
की पंगत में,
हूँ शुमार ....

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