Tuesday 5 August 2014

क्या को क्या देखतें है (अंकितजी)

क्या को क्या देखतें है 

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रोशन समान में खुली आँखों से अंधेरों  को देखते हैं ,

आदत जो हो गयी है-बिखरे टूटे चेहरों को देखते हैं ,

गुलामी ही गुलामी है जिन के ज़हनों  में,

वो गुलशन को नहीं.....दर पर पड़े पहरों को देखते हैं .


खुश्बुओं का लुत्फ़ क्या लेंगे वो बंदे,

हर फ़िज़ा में जो बदबुओं को देखते हैं ,

चलना नहीं है जिनकी फ़ितरत में,

वो कदम कदम पर मंज़िलों को देखते हैं .


आधे सच की लाशें लादे  हुए है कंधों पर,

झूठ  को ही सच जैसा समझ कर देखते हैं ,

आए है होने शरीक मेरी महफ़िल में,

वो महफ़िल से ज़्यादा  सजावट को देखते हैं .


बीते कल के ख़यालों से चिपके है रात दिन,

आने वाले  की फ़िक्र लिए हर वक़्त...आज को देखते हैं ,

हर लम्हा ख़ुदकुशी करते जिए जा रहे हैं  वो,

जीने से ज़्यादा  मौत को देखते है.


खुद खाली है मगर आमदा   हैं भरने सभी को,

वो अक्स से ज़्यादा  आईनों को देखते है,

एहसास महसूस की छुअन  से दर किनार,

हर शै में वो अपने ही मायनों  को देखते है.


जकड़े बँधे से है ख़ौफजदा ज़ंजीरों में,

हकीक़त से ज़्यादा  किताबों को देखते हैं ,

कैसे पाएँगे सुकूने  मोहब्बत को,

तोड़ तोड़ कर प्यारे गुलाबों  को देखते हैं .


खुद हो चुके फ़ना हाथों वक़्त के,

अफ़सोस वो हर एक की मय्यत को देखते हैं ,

फिर भी जी रहें है हम उनकी बस्ती में,

जो हम से ज़्यादा हमारी कीमत को देखते हैं .

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