Friday, 1 August 2014

सापेक्ष-निरपेक्ष (मेहर)

सापेक्ष-निरपेक्ष 
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सुनो,
अब मैंने जाना समझा 
जो कहा करते थे तुम,
कितना सापेक्ष होता है
जुड़ना भीड़ से,
चाहिए होता है 
कोई सदर्भ 
इस बेमेल जुड़ाव के लिए, 
देखो ना 
आज मेरे इर्दगिर्द है
बेशुमार भीड़ 
मगर कहाँ छोड़ पा रहा है
मुझ को
मेरे खुद का 
अकेलापन,
कब से देखे जा रही हूँ 
अनगिनत अजनबी चेहरे 
फेंकते रहती है जिन्हें 
ना जाने कहाँ कहाँ 
मेरी ही ये आँखें, 
कह सकती हूँ मैं आज, 
बस है मात्र 
निरपेक्ष 
खुद से जुड़ जाना 
और 
तुम से जुड़ जाना....

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