Monday, 28 July 2014

मौजी....

मौजी....

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मन का मौजी
तन का खोजी
रसिया है तवियत का
मीठे बोल लुटाता रहता
खोटा है नीयत का....

बनता ज्ञानी
बातें बिन पानी
शब्दजाल फैलाया
भ्रमित करे बातों से सब को
उसका पार ना पाया...

खोटा रूपया
है बहुरुपिया
स्वांग उसके बहुतेरे
हकीक़तों के नाटक करता
रहे बदलता चेहरे...

बच के रहियो
उसे ना सहियो
जाने ना क्या हो जाए
मुश्किल से है मिली ज़िन्दगी
खोये और पछताए...

साजन छलिया
डारे गलबहियां
तीखी याद सताए
ज़ुलमी क़ी छवि अंखियन बसती
उसे कैसन हम बिसराए....

दर्पण अपना
अक्स भी अपना
उसे कोस कोस थकी जाए
देखें जब दिल क़ी नज़रों से
बात समझ में आये.....

दुनियावी बातें
होवे खैरातें
भये एहसास कुछ अपना
खुद से प्यार होई जावे हम को
साकार भई जावे सपना....

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