Sunday, 18 December 2022

अहंकार एक ऊर्जा भी

 


अहंकार एक ऊर्जा भी 

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"अहंकार", "अहम" "मैं", "अना" "Ego-Egoitism-Egoism-Egocentric" "स्वयम्" आदि शब्दों को लेकर दर्शन, मनोविज्ञान, आध्यात्म,धर्म शास्त्र  रोज़मर्रा के व्यवहार आदि में भयंकर और अंतहीन विश्लेषण, संश्लेषण, विमर्श, विवेचन, बाबा लोगों के भाषण आदि है. इन बड़ी बड़ी बातों पर फिर कभी. आज के ताज़ा ज़मीनी ऑब्ज़र्वेशन पर बात हो जाए.


ज्ञान गुफ़्ता अपनी जगह, यह अहंकार अगर आटे में नमक जितना ना हो तो बहुतों के जीने में कोई रवानी ना रहे. आज सुबह का ही वाक़या है. यहाँ बंगाल में दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से मनायी जाती है सभी आम और ख़ास द्वारा. मगर एक आह्लाद जो अति साधारण और मध्यम आय वाले तबके में दिखायी देता है वह मेरे इस नोट का विषय है.

एक पोश कहलाने वाले इलाक़े में रहता हूँ...और इसी इलाक़े में एक मंत्री जी अपनी क्लब के तहत यहाँ की सबसे प्रसिद्ध पूजाओं में एक का आयोजन हर वर्ष करते हैं...दर्शकों की भीड़ भी सबसे ज़्यादा होती है. सब रास्ते क़रीब क़रीब बंद...गाड़ियाँ रेंगती सी. 

हाँ तो आज सुबह मैं ने क़रीब दो किलोमीटर का पैदल राउंड लिया और तटस्थ ऑब्ज़र्वेशन किया जो शेयर कर रहा हूँ.


१. दो तीन लड़कियाँ, ब्रांडेड ड्रेसेज़ की सस्ती अनुकृतियाँ पहने जिस ठसक से चल रही थी उसने मुझे प्रभावित किया. थोड़ी देर के लिए ही सही एक अहंकार उनमें फुर्ती और जोश ला रहा था...भ्रम कहिए लेकिन सकारात्मक और रचनात्मक जो उन्हें सहज ही उनके होने का एहसास दिला रहा था. उनका छोटी छोटी खाने पीने की चीजीं ख़रीदना, अदा के साथ कोल्ड ड्रिंक पीना...अपने को कुछ अलग सा समझना उत्साह दे रहा था.


२. एक सामान्य परिवार ने किराए की SUV ले रखी थी, पूजा पंडालों को विज़िट करने के लिए. एक मालिक की तरह दरवाज़ा खोलना, या दरवाज़ा पकड़ कर खड़ा होना...गाड़ी में बैठना बिलकुल आभिजात्य का एहसास...एक अहंकार की पुट लिए...क्या बुरा है इसमें...वही तो उन्हें कुछ क्षण ऐसे ज़िला कर पर्याप्त होने का एहसास दिला रहे थे.


३. एक electrician  किसी काम से आया. फ़ेस्टिव मूड में था. बात चीत में उसके काम के जानकार होने का ग़ुरूर ज़ाहिर हो रहा था...अच्छा ही है ना उसके सेल्फ़ कॉन्फ़िडेन्स को बूस्ट कर रहा था.


आसपास में बहुत से उदाहरण इन छोटी छोटी EGO या अहंकार के मिलेंगे और उसमें हम अगर तटस्थ होकर देखें तो ऊर्जा दिखेगी...एक जज़्बा दिखेगा जो मानवीय है. 


यही अहंकार हमें ऊँचा सोचने की तरफ़ प्रशस्त करता है.


कभी कभी सोचता हूँ ये अहंकारी बाबा लोग किस अहंकार/मैं  के पीछे लट्ठ लेकर पड़े रहते हैं, लम्बी लम्बी शाब्दिक तक़रीरें करते रहते हैं.


पता नहीं क्यों पाखंड भरा "मो सम कौन कुटिल खल कामी" का गान मुझे गंदा वाला अहंकार लगता है.


आज के लिए बस.😊

दिलबर मेरे ! : विजया



दिलबर मेरे !

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तुम्हारा दीवनापन

बौझ सा लगता था मुझ को 

तुम्हारा पीछे पड़ जाना 

नहीं सुहाता था मुझ को

मगर नहीं जानती 

कब हो गया था

मुझे प्यार तुम से....


मेरी गलियों में आना जाना तुम्हारा 

अपनी गाड़ी खड़ा कर 

बस स्टाप पर इंतज़ार करना 

और मेरे कॉलेज की बस में सवार हो जाना 

खोजना ऐसी सीट की 

देख सको कहाँ से मुझ को 

गुनगुनाते थे तुम कोई 

मेहदी हसन का गहरे इश्क़ वाला नग़्मा 

इस अन्दाज़ में 

के जज़्बात भरे अल्फ़ाज़ 

पहुँच जाए मुझ तक...


सच कहूँ 

ग़ुस्से के संग प्यार आ जाता था तुम पे 

मगर सोचती थी फिर 

क्या मिल सकते हैं नदी के दो किनारे कभी 

तुम तालीमयाफ़्ता ऊँचे ख़ानदान के फ़र्ज़न्द 

मैं बदनाम गलियों में पली एक यतीम लड़की 

जिस का माज़ी था 

मगर हाल और मुस्तकबिल नहीं...


मैं लड़ रही थी अपने दिल से 

पूछती रहती थी सवाल बहुत से अपने ज़ेहन से 

सिर्फ़ होने को मायूस 

के नामुमकिन है मिलना हमारा,

लड़े थे मगर तुम हर शै से 

ख़ानदान सोसाइटी और सिस्टम से 

हर मक़ाम पर हारी हुई लड़की को 

जीत कर हर मक़ाम पर 

हासिल कर ही लिया है तुम ने...


आज पहली दफ़ा लिया है 

मेरा हाथ जो तुम ने अपने हाथों में 

महसूस करो मेरी छुअन को

जो कह रही है शिद्दत से 

ऐ दिलबर मेरे !

कभी जुदा ना करना इस हाथ को 

कभी छोड़ ना देना इस साथ को...





दास्ताने आख़री मुलाक़ात : विदुषी सीरीज़



दास्ताने आख़री मुलाक़ात 

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[फ़लसफ़े(दर्शन)और नफ़्सियात (मनोविज्ञान) का ताउम्र तालिबे इल्म (विद्यार्थी) ...चीजों को ज़रा अलग ढंग से देखने की फ़ितरत...भुस के ढेर में सुई कहाँ छुपी है यह देख पाने की कुव्वत... इंसानी रिश्तों के मुसल्सल तजुर्बे....बड़े क़िस्से हैं मेरे पास. किरदारों से भी इन्पुट्स हासिल होते रहते हैं....उस पर थोड़ा असली घी मसालों का तड़का. यह दास्तान भी कुछ ऐसी ही है.]


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लुत्फ से भरपूर  रही थी "प्रेमी जोड़े" की वह गपचुप पहाड़ों की ट्रिप. सारे कमिटमेंट्स के परे forbidden fruit चखते 

हुए, रूहानी  प्रेम का ड्रामा करते हुए अपने अपने मक़सदों जी लेने की मशक़्क़त . अरली मिडल एज और दोनों ही शादीशुदा, दोनों के अपने अपने vaccum और volume....दोनो ही intellectual और ऊपर से शायर जाति के प्रानी याने करेला और नीम चढ़ा...दोनों ही अपने अपने करतबों को जस्टिफ़ाई करने में माहिर और ज़मीनी तौर पर अव्वल दर्जे के शातिर याने स्ट्रीट स्मार्ट.


रूमानी प्रेम का खूब ड्रामा हुआ. तस्वीर की तरह ही मर्द  ने सरकारी सर्किट हाउस में औरत का  हाथ अपने हाथों में  लेकर 'अमर प्रेम' पर लम्बी सी तक़रीर कर डाली थी और औरत ने  भी आँखों में आँसू भर कर गर्दन झुका, कोमलता का लबादा औढ 'सम्पूर्ण  समर्पण' का सजीव रोल कर दिखाया  था. प्रेम के भी कई रंग-रूप  होते हैं, एशियन पैंट्स के शेड कार्ड के नमूनों जैसे.


टैक्सी नैनीताल से काठगोदाम के लिए चलती है आगे ड्राइवर के बगल वाली सीट पर प्रेमी जोड़ा ज़िद करके बैठ जाता  है.. "हम दोनों एक ही सीट पर बैठेंगे वो भी आगे वाली सीट पर"....थोड़ी ना नुकुर  के  बाद ड्राइवर मान जाता है, गाड़ी चल पड़ती है.  ड्राइवर के पास ऑडियो केसेट्स का कलेक्शन गज़ब का था फरमाइश शुरू होती है गीत बजने लगते हैं.


जोड़े के मर्द और औरत की मंज़िलें जुदा जुदा थी , मर्द  को काठगोदाम से ट्रेन पकड़नी थी और औरत को  हल्द्वानी से बस. मर्द उदास था कि वह कुछ देर बाद अपनी 'जिंदगी' से जुदा हो जाएगा.वह एक महीने बाद अपननी साल गिरह  पर फिर मिलने की मंशा ज़ाहिर करता है, औरत उस से मुस्तकबिल (भविष्य)  की बात न करने और मौजूदा लम्हे को शिद्दत से जी लेने की बात करती है और ड्राइवर से अपनी पसंद का एक नग़्मा सुनवाने की गुज़ारिश करती है.." सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जाएं..इस रात में जी लें हम इस रात में मर जाएं"

 

मर्द तय करता  है कि वह औरत को  हल्द्वानी तक छोड़कर फिर लौटकर काठगोदाम से ट्रेन पकड़ेगा, इस तरह वह दोनों कुछ देर और साथ रह सकेंगे. वही नग़्मा बार बार रिपीट करके बजाया जाता है 'सिमटी हुई ये घड़ियाँ'... 


जोड़े में मर्द बेचारा इस बात से वाकिफ़ नहीं था कि यह उन दोनों की आखिरी मुलाकात है, वह तो बितायी  रातों के तसव्वुर में बार बार डूबे  जा रहा था जब जब नग्मे की यह लाइन सुनता: 

"अब सुबह न आ पाये आओ ये दुआ माँगे..इस रात के हर पल से रातें ही उभर जाएं". औरत अपने प्यार की मैथेमैटिक्स की उस्ताद, "प्रेम यात्राओं" की शौक़ीन.


इसके बाद, गंगा में बहुत पानी बह कर समंदर में मिल गया मगर  आज तक इस का जवाब नहीं मिल पाया, किस ने किस को कब कब छला ?

और फिर : विदुषी सीरीज़

 विदुषी के विनिमय की कहानियां

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और फिर.....

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विदुषी और मुनीश शायद एक ही इंस्टिट्यूट में पढ़ते थे. दोनों अलग अलग जगह सेटल हो गए थे. पढ़ने के दौरान interactions होते थे या नहीं लेकिन सोसल मीडिया पर अंतराल के बाद मिले, "साथ पढ़े" वाली फ़ैंटसी को बल मिला तब इंस्टी के समय की ढेरों बातें होने लगी. विदुषी ने नया नया कविताएँ लिखना शुरू किया था, मुनीश भी कभी कभार लिख लेता था, हालाँकि दोनों ही इंजीनियरिंग बेक ग्राउण्ड से थे. 


विदुषी होम मेकर, लेकिन टाइम मेनेजमेंट और मल्टीटास्किंग की माहिर सो बहुत समय रहता था उसके पास, शौहर अपने दफ़्तर  में मशगूल, और मैडम जी ऑनलाइन.


 शादी एक ऐसा रिश्ता है जिसमें कोई दुर्लभ पार्ट्नर्स ही होते हैं जो सौ टका कंपेटिबल कहे जा सकते हैं, फ़र्क़ होता ही है दो व्यक्तियों और उनके व्यक्तित्वों में. आपसी समझ, व्यवहार और सहज प्रेम से पति पत्नी इस मानव निर्मित विवाह संस्था का सफल संचालन कर सकते हैं यह एक प्रेक्टिकल बात है और मनोवैज्ञानिकों ने भी इसे एंडोर्स किया है. हमारी नायिका विदुषी के दिमाग़ में यह बात कूट कूट कर भरी थी कि उसका शादी का साथी कंपेटिबल नहीं, हालाँकि थोड़े से फ़ैक्ट्स थे ज़्यादा फ़िक्शन. मुनीश किसी कम्पनी में मार्केटिंग मेनेजर था. वहाँ भी दबंग बीबी और शालीन शौहर के चलते थोड़ा कम्पैटिबिलिटी का इस्यू रहा होगा, बाक़ी विदुषी ने अपनी स्मार्ट्नेस और वाकचातुर्य से कई गुना करवा दिया था. 


मुनीश के घर से दफ़्तर तक का रास्ता कार द्वारा कोई चालीस मिनट का था. उस समय का सदुपयोग स्पाउसेज़ की ग़ैर हाज़िरी में दोनों दिली बातों के लिए इस्तेमाल करते. विदुषी  अपनी कविताएँ सुनाती, सुनाए ही जाती और बेचारा मुनीश शुरू में तो रुचि लेता मगर धीरे धीरे बोरियत को मज़ेदार रोमांस के विनिमय के साथ जैसे तैसे झेल लेता. हाँ उसकी "बरनी" पर लिखी कविता को याद दिला दिला कर विदुषी मुनीश को उसका भी कवि होना याद दिलाती. whatsapp नहीं आया था तब तक दफ़्तर के दौरान दुपहरिया में दोनों की Gtalk और Hangout पर चैट होती, बायोलोजी और सायकोलोजी दोनों के इर्दगिर्द बात चीत का पेंडुलम हिलता डुलता रहता. 


दोनों के रूबरू मिलन की तड़फ भी बढ़ने लगी....तय हुआ कि बीच के एक रेल्वे स्टेशन पर दोनों मिलेंगे. विदुषी और मुनीश ने सापेक्ष गति वाले गणित के फ़ोरमूले के अनुसार दोनों दिशा से आने वाली ट्रेन्स का चुनाव किया और नियत समय पर दोनों ही उस स्टेशन पर मिल गए.


विदुषी बोल्ड थी और मुनीश भीरु क़िस्म का इंसान. विदुषी ने उसमें जोश और हिम्मत इंजेक्ट कर यह प्रोग्राम बनाया था लेकिन दिल और दीमाग से मुनीश कंफ्यूजन में था. बुद्धि जीवियों वाले प्यार में सेक्स के मक़ाम तक पहुँचने से पहले बड़ी डायलोग बाज़ी होती है, बहुत लम्बे लम्बे सैद्धांतिक भाषण, आदर्शवाद के बघार और इश्किया खसुर पुसुर होती है. दोनों ही प्रानी अगर शादीशुदा तो कई 'इफ़्स और बट्स' मध्यमवर्गीय  मानसिकता वाले लोगों के लिए ऐसे ताल्लुकात में आड़े आते हैं और कभी इश्क़ की गाड़ी के टायर फ़्लैट हो जाते हैं तो कभी बेटरी डिस्चार्ज तो कभी इंजन का ब्रेकडाउन.


विदुषी ने कहा चलो सिटी में चलते हैं कुछ देर कहीं कॉफ़ी पर बैठते हैं और फिर......


हैंड्स होल्ड हुए, अधूरे हग भी सार्वजनिक स्थल पर हुए, विदुषी की पहल पर हल्का सा 'किस' भी.....शायद तीन चाय और दो कोक्स हो गयी सेंडविचेज के साथ. "तुम दुनिया से अलग" " तुम्हारी बात ही कुछ और"....हमारा मिलना दैविक संयोग....हमारी दोस्ती हमारे अपने स्पाउसेज़ और किड्स के भले के लिए ही कंट्रिब्यूट करेगी...इत्यादि बातें पुनरावृति के साथ होती रही. विदुषी जो चाह रही थी उसके लिए मुनीश हिम्मत नहीं कर पा रहा था, उसकी बरनी में मिक्स्ड आचार जो था याने तरह तरह के विचार. शायद कोई दो  घंटे वहीं प्लेटफ़ोरम, वेटिंग रूम, यह कोना-वह कोना में गुजर गए. तय हुआ अगली मुलाक़ात में "और फिर" के बाद वाले के लिए मेंटली तैय्यार होएँगे दोनों आपसी बात के ज़रिए अण्डरस्टेण्डिंग डेवलप करके. 


फिर एक दूजे को हग करके, 'आई लव यू' के मोहब्बती नारे के साथ प्रेम युगल ने जुदा हो कर अपनी अपनी ट्रेन्स पकड़ ली थी. विदुषी पूरब की जानिब और मुनीश पश्चिम की तरफ़. 


घर पहुँच कर दोनों अपने अपने लाइफ़ पार्टनर्स के साथ थोड़ा और  ज़्यादा प्रेम दर्शाते शाम के स्नेक्स खा रहे थे...हाँ विदुषी मन ही मन उस समय अधूरी मुलाक़ात को पूरा करने के प्लान सोच रही थी और मुनीश अपने कॉन्फ़िडेन्स लेवल को बूस्ट करने कोई ओशो के वक्तव्य को सोच रहा था, क्योंकि उन दिनों उसे ओशो जी का नया नया शौक़ चढ़ा था. विदुषी भी फेशन वाले आध्यात्म की ग्लैमर को अपने मुआफ़िक़ पा रही थी.


(यह लघु कथा सीरीज़ जारी है)

ज़मीनी बातें : रिश्तों में सावधाने

 ज़मीनी बातें : रिश्तों में सावधाने 

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(१)  संवेदनशील और प्रामाणिक लोग अपना प्रतिबिम्ब ही औरों में देखते हैं जब कि जीवन के कुछ फ़ेज़ेज़ में ऐसे लोग जैसे तैसे  शुमार हो जाते हैं जो या तो अपने उस समय के मतलब के लिए आपसे चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं, प्यार मोहब्बत दोस्ती जताकर आपके सहज  मन में पैठ जाते हैं,अपने सच्चे झूठे दुखड़े गा गा कर सहानुभूति और attention बटौरते जाते हैं. आपसे जो लाभ मिलते हैं वे discontinue ना हो जाए इसलिए आपकी कुछ नापसंद सच्ची सीधी और उनके हित की बातों को सराहते हुए भी इस कान से उस कान निकालते जाते हैं और हाँ हाँ करते रहते हैं, क्योंकि इन्हें वही करना है जिसमें इन्हें रस आता है. प्रेम, समर्पण, समझ जैसे शब्द इनकी हर बात में आएँगे. इनके वफ़ादारी के वादे इतने strongly worded होते हैं कि इनका इरादा उनमें छुप सा  जाता है.


इन चेहरों पर कई परतें होती है और ये खुद का negative रूप छुपाने में माहिर होते हैं.  ये शातिर लोग आपकी कमजोर रग को पकड़ कर अपने जाल में लगातार आपको फँसाते हैं और आप भी अपनी मासूम कमज़ोरियों के चलते फँसते जाते है. यहाँ तक कि आप इनके चलाए चलने लगते हैं....यह उनकी जीत और आपकी हार होती है.


आदर्शवादिता, प्रशंसा और कथित प्रेम की भूख, ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा करना  इन कजोरियों में से कुछेक  है, जिनका लाभ ये बेसाख़्ता उठाते हैं.


ऐसे लोग जब expose होते हैं तो इनके असली चेहरे और फ़ितरत बहुत ही वीभत्स रूप में सामने आते है. कुछ लोग तो इतने छोटे हो सकते हैं बात व्यवहार में भी कि आप सोच भी नहीं सकते. आप के किए हज़ार उपकार उनके लिए अर्थहीन हो जाते हैं और आपको सब लिहाज़ छोड़ कर ऐसा ऐसा सुनाते हैं कि आप आवाक हो जाते हैं. 


जो लोग logically बुनियादी तौर पर दुष्ट साबित हो जाते हैं उनके लिए  कुरुक्षेत्र में कृष्ण द्वारा बोले गीता वचनों को याद करते रहना चाहिए, जिनसे उन्होंने अर्जुन को चेताया था. बिना मन को उद्विग्न किए उचित कर्म कर पाना ही कृष्ण-धर्म.


कभी कभी इनका उधार इन्हीं के सिक्कों में चुकाना कृष्णधर्मिता  होती है. यदि आप होशमंद और स्पष्ट हैं तो पहले इनका नाम अपने जीवन से बाहर कहीं लिखिए, शांत मन से बिना अतिरिक्त ऊर्जा गँवाए इन्हें इनकी ही भाषा और तौर तरीक़ों से नए नए सबक़ सिखाइये, ताकि ये स्कोट फ़्री ना निकल पाएँ. समय और ऊर्जा का यह इन्वेस्टमेंट दीर्घकाल में लाभप्रद होता है.


क्षमा, लेट गो या मूव ऑन के सिद्धांत बड़े प्यारे हैं लेकिन पात्रों और स्थितियों के साथ सापेक्ष होते हैं. इन अप्रोचेज़ को चुनने में Emotions और  Rationality  की Balancing  ज़रूरी होती है.


काल, भाव, द्रव्य क्षेत्र के अनुसार उपाय चुनना समझदारी.


(२) कुछ ज़िद्दी, बेवक़ूफ़ और अहम से भरे लोग भी पाए जाते हैं जो  ख़ुदगर्ज़ क़िस्म के होते हैं और जिन्हें यह गुमान होता है कि वे बड़े साफ़गोई वाले हैं, सहज है सादा दिल है इत्यादि. आपको उनके साथ जुड़ने में सिवा सब तरह के नुक़सान के कुछ नहीं होना--ऐसे लोग आपके साथ कभी भी same page पर नहीं हो सकते क्योंकि उनका mental level आप जैसा नहीं होता, ना जाने आपकी किस बात को ये क्या समझ लें और पकड़ कर बैठ कर उसका ही प्रलाप जारी रखें. पूरी कायनात के लिये इनमें बारूद भरा होता है, कोई भी दियासलाई की तीली इनमें लपटें और विस्फोट पैदा कर सकती है....इसलिए साबधान !


इनके प्रति दया/करुणा भाव रखते हुए, safe distance बनाए रखना ही हितकर. 


इनके लिए भी यथोपयुक्त Point-१ में दी गयी अप्रोच अपनायी जानी चाहिए.


(३) आत्ममुग्ध याने नार्सिसिस्ट ,  हीन भावना से ग्रसित, manipulator व्यक्तित्व वाले, बाइपोलर डिसओर्डर इत्यादि तरह तरह के menia/disorders से ग्रसित लोग भी आप से ज़िंदगी के किसी दौर में संयोगवश जुड़ जाते हैं. इनसे सहानुभूति होना अलग बात है इन्हें सुधारने का ठेका ले लेना बहुत रिस्की होता है. यहाँ भी सावधानी हटी और दुर्घटना घटी वाली कहानी होती है. 


इन्हें Pychiatrist/Psychologist तक पहुँचाना ही अभीष्ट.


(४) ऊपर दी हुई घातक स्थितियों से बचने का एक ही उपाय है कि दीमाग और आँख खोल के जाँच परख कर रिश्ते बनाएँ. सामने वाले के untoward traits और गतिविधियों का आकलन यदि हो जाए तो तुरत किनारा करने से ना ही हिचकें. सद्भाव और आदर्शों के नाम पर अवसर देते रहना बेवक़ूफ़ी है उदारता नहीं. रिश्तों में Give and Take दोनों होना ज़रूरी है, उदारता और विशाल चिंतन अपनी जगह हैं लेकिन वह लगातार एक तरफा ही हो यह अपेक्षित नहीं, संतुलन ज़रूरी है. 


(५) Repetition है लेकिन शब्द अलग : Awareness, Clarity और Acceptance का मंत्र जीवन के इस पहलू को handle करने के लिए अपनाने की अनुशंसा.

ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा : विजया

 


ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा ...

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अवदान तुम्हारा अनुपम है

समग्र जीवन के लिये 

तुम बिन कहाँ है पूर्णता हमारे लिए 

तुम वैकल्पिक  नहीं 

अनिवार्य हो हमारे लिए

निबाहते हो कितने किरदार जीवन में 

तुम ही तो हो पूरक हमारे लिए 

ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा 

पहुँचे तहेदिल से प्यार और सम्मान हमारा...


जब हो जाता है जीवन कठिन 

तुम  बन जाते  हो 

एक दृढ़ चट्टान  परिवार के लिए

दस्तक से पहले ही 

दे देते हो तुम प्रत्युत्तर द्वार को

आते है ऐसे ऐसे क्षण भी  

जब सब कुछ लगता है बिखरता छितरता

तुम कर देते हो आसान सब कुछ 

कर देते हो आलोकित  हृदयों को

भर देते हो तुम गहरे ज़ख्मों को

यही तो है सौंदर्य तुम्हारी आत्मा का ...


एक पहेली है  यह ज़िंदगी 

जिसे करते जाना हाल ही तो जीना है 

या कहें जीवन है एक रहस्य 

जिसे बस जीए जाना है 

तुम रहते हो तत्पर पल प्रतिपल

दूर करने सभी संदेहों को

तुम जब होते हो साथ हमारे 

हो जाती है आसान मुश्किलें सारी 

और लगने लगता है सब कुछ तरोताज़ा 

बहुत कुछ है जिसके लिए हम स्त्रियाँ ऋणी हैं तुम्हारी ...


माना कि तुम भिन्न हो हम से 

पर तुम में भी तो होती है एक स्त्री 

क्यों नहीं उभरने देते  जिसे कुछ  प्राणी तुम जैसे

नहीं तो हो ना जाए यह दुनिया भी 

एक स्वर्ग जैसी 

ओ पुरुष  ! आज का दिन है तुम्हारा 

पहुँचे  तहे दिल  से प्यार और सम्मान हमारा...

आधी अधूरी किताबें : विजया


आधी अधूरी किताबें 

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तेरे क़ुतुबखाने में 

सजी पायी है 

बहोत सी खुली किताबें 

जहां कितना कुछ लिखा है 

बिन सफ़हों और सियाही के....


कुछ किताबें है 

साँसे लेती 

रोती गाती बोलती 

हंसती मुस्कुराती सी 

जिन से महसूस होता है अपनापन 

कुछ लीपी पुती तुड़ी मुड़ी

लिज़लिजी सी 

जिन्हें छूने तक से घिन आती है 

जिल्द खूबसूरत 

मगर दास्तान बदसूरत,

कुछ क़िस्से ख़ुशनुमा ख़ुशगवार

कुछ डरावने ख़्वाबों से 

कुछ ज़िंदगी का सच बताते

कुछ पैग़ामे इल्म देते 

कुछ सुकूनजदा तो कुछ तूफ़ानी 

नहीं पढ़ पाती मैं पूरा किसी को....


सोच कर हैरान हूँ 

कैसे पढ़ लेते हो एक एक लफ़्ज़ तुम 

डूबाकर खुद को 

इन अनगढ़ अनजानी दास्तानों के भँवर में 

शुक्र है हर बार एक लम्बा सफ़र तय कर के 

लौट आते हो तुम महफ़ूज़ 

पहाड़ों और जंगलों से घर को

साथ लेकर कोई आधी अधूरी किताब....


(क़ुतुबखाना=Library)

दिसम्बर...(विजया)

पहले दसवें थे 

फिर मिला तुम्हें तुम्हारा स्थान 

बारहवाँ और साल  के उपसंहार वाला (अ)

उनतीस से इक्कतीस दिन पाए  (ब)

कुछ तो ज़रूर रहे होंगे 

इस पदोन्नति के कारण...


साल भर की ऊँच नीच 

सारे मौसमों 

सारी गहमागहमी से गुज़रकर 

साल भर के हर भले बुरे के गवाह तुम 

आकर खड़े हो 

एक धीर वीर गम्भीर हो कर...


उत्सवों के चमन हो तुम 

दुनिया भर में हर दिन तुम्हारा उत्सव 

कहीं ना कहीं 

मौज मस्ती है फ़ितरत तुम्हारी 

उसमें भी संजीदगी है दौलत तुम्हारी 

कुछ तो है तुम में 

तभी तो अज़ीज़ है हरेक हरकत तुम्हारी...


कितने गहरे और उदार हो तुम 

एक व्यक्ति नहीं समग्र संसार हो तुम 

जो जो अवतरते हैं धरापर तुम संग 

मानव वे विशिष्ट होते हैं (द)

फिर भी ना जाने क्यों तेरी छाँव में 

शेष होते हैं सम्बंध जो अवशिष्ट होते हैं...(स)


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Notes : 


अ)December शब्द  की उत्पति लैटिन भाषा के शब्द decem से हुई जिसका अर्थ दस होता है, पहले केलेंडेर में यह दसवाँ महीना होता था और वर्ष मार्च से शुरू किया जाता था फिर साल को जनवरी से शुरू होना तय हुआ और दिसम्बर को बारहवाँ महीना बना दिया गया. 

ब)दिसम्बर में पहले 29 दिन होते थे फिर 30 और उसके बाद 31 कर दिए गए.

स) मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से नतीजा निकला है कि दिसम्बर में break-ups ज़्यादा होते हैं.

द) अध्ययनों से यह भी मालूम हुआ है कि दिसम्बर महीने में पैदा हुए लोग independent, well behaved, achiever, loyal होते हैं. स्वास्थ्य की दृष्टि से बीमारियों के तहत बहुत कम होते हैं याने उनको बहुत से रोग होने के chance तुलनात्मकता में बहुत कम होते हैं.

Wednesday, 5 October 2022

मुग्धा



१.शब्दकोशों में मुग्धा (उर्दू में मुगधा) का अर्थ है : नायिका जिसमें यौवन के लक्षण दिख रहे हों परंतु जिसमें अभी पूर्ण काम चेष्टा का भाव उत्पन्न न हुआ हो, लज्जावती नायिका, सुंदरी, कुमारी.

२. हिंदी उर्दू शब्दों  का सम्मिलित प्रयोग हुआ है इस रचना में.


३. कृपया और शे'र इसमें कंट्रिब्यूट करें.😊


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आहा...

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बाद ए सबा बन महकी है मुग्धा सवेरे सवेरे

उसकी छुअन से खुली आँख मेरी सवेरे सवेरे...


आँखों में कजरा आहा वेणी की सुगंध केशों में 

हाथों में रची मेंहदी महकी आहा सवेरे सवेरे...


धड़कने बढ़ गयी आहा साँसे भी थम गयी है 

अचानक दबे पाँव आना आहा सवेरे सवेरे...


कौन है वो अनामिका दिलरुबा महकी महकी 

मेरा सपना हुआ सुरभित आहा सवेरे सवेरे...


जी लेना इश्क़ ओ फ़र्ज़ रूमानियत से कम नहीं 

ज़िंदगी मेरी गुलज़ार, देखूँ तुम्हें आहा सवेरे सवेरे...(Vijaya)

स्त्री का प्रेम....: विजया



इसमें कितनी नैसर्गिकता/प्राकृतिकता/स्वाभाविकता/सहजता  है और कितना अनुकूलन, नहीं जाते इस डिटेल में...देख लेते हैं जस का तस जनरली 😊


स्त्री का प्रेम 

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स्त्री शरीर में 

एक रूप होता है 

पत्नी, प्रेमिका या सहचरी का 

एक और रूप होता है 

माँ का....


पति या प्रेमी के साथ 

लाख सिद्धांतों की बातें हो 

रिश्ता होता है 

आधारित अपेक्षाओं के  

और 

संतांन के लिए 

होता है पूर्णत: अपेक्षा विहीन....


बड़ा विचित्र होता है 

प्रेम स्त्री का,

सह पुरुष के संग 

हो जाता है कामना प्रबल 

नहीं होती है संतुष्ट पूर्ण, 

संग संतान 

वही होता है वात्सल्य प्रबल 

ना पाकर कुछ भी 

माँ के रूप में 

हो जाती है वह सहज संतुष्ट....


देखना चाहती है स्त्री 

अपनी संतान को

उनके पिता से आगे बढ़ते, 

भोगना चाहती है 

पति की समृद्धि का सुख 

करती है गर्व अपने वैभव पर 

प्रचारित भी करती है 

किंतु रहती है फिर भी अतृप्त....


लेकर पति का समर्पण 

हो जाती है 

समर्पित संतान के लिए 

बन जाती है पक्षकार 

संतान की पति के सम्मुख 

झेल सकती है कोई भी कष्ट 

संतान के लिए

जाकर परे अपने अहंकार से 

स्वीकार सकती है 

होना स्वच्छंद बच्चों का 

किंतु पति का नहीं 

रहेगी प्रयासरत और अधिकांशतः सफल 

पति को अटकाए रखने में 

डोर दृश्य और अदृश्य 

रहेगी हाथों में उसके....


सार को देखा और समझा जाय 

नहीं लगेगा अच्छा 

निकम्मा पति उसको 

किंतु नहीं लगेगी बुरी 

संतान निकम्मी उसको....

मेरे चौथे प्यार ने....

 मेरे चौथे प्यार ने....

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मेरे चौथे प्यार ने सिखाया 
प्यार अल्फ़ाज़ में इजहार नहीं 
प्यार कोई तोहफ़े देना नहीं 
प्यार तरह तरह की  सेल्फ़ीज भेजना नहीं 
प्यार हर छोटी बड़ी गतिविधि की 
खबर  और तस्वीर भेजना नहीं 
प्यार वे अहद (१.१)और क़समें नहीं जो 
कभी नहीं निबाहे जाने हैं 
प्यार बार बार 
खोज खबर लेने का जज़्बा दिखाना नहीं 
प्यार बात बात में 
" I Love You."  कहते रहना नहीं 
प्यार  मिसिंग यू का प्रलाप नहीं...


मेरे चौथे प्यार ने सिखाया 
अनकहा और बिन बोला भी हो सकता है प्यार 
ऐसा भी जिसका एहसास कुछ अलग से नहीं होता 
होना ही किसी का होता है माकूल मिकदार (१.२)
नहीं सोचना होता आवाज़ देने के पहले 
कोई ग़ैरज़रूरी दख़लंदाज़ी और बेजा तवक्को (२) नहीं 
आपसी एहतिराम (३) और समझ 
फजूल की तश्रीह ओ तेहलील (४) नहीं 
मिलकर और बातचीत कर 
ख़ुशगवारी और हल्कापन महसूस हो 
मिलने के लिए इज़्तिरार(५)मगर बेताबी(६) नहीं....

मेरे चौथे प्यार ने सिखाया 
प्यार का सबसे ऊँचा रूप दोस्ती 
इंसानी रिश्तों में ऐसा प्यार 
जब महसूस होने लगे 
दिल कहता है अगला पायदान(७)  होगा 
खुद से खुद को प्यार 
फिर ख़ुदा से प्यार 
और उसके बाद खुद हो जाना खुदा...

मायने : 
===
(१.१) वादा/प्रतिज्ञा (१.२)  पर्याप्त (२) अपेक्षा (३)आदर (४)विश्लेषण(५) उत्सुकता (६) अधैर्य/विकलता (७) सीढ़ी 



Monday, 19 September 2022

जुगाड़पंथी

 जुगाड़पंथी...

#######

जुगाड़पंथी को नाम

दिली मोहब्बत का दे दिया 

फ़ितरत ए खुद-पसंदी को सहारा 

दीन ओ रूहानियत की 

बैसाखियों का दे दिया...


एक दौर में सीखे 

नज़्म ग़ज़ल ओ डायलोग 

किए जाते हैं इस्तेमाल

अगले तआलुक्कों में,

दौरे थंडर, राफ़ेल ओ सुखोई में 

ज़ल्वा ए मिग को 

बरपा करा दिया...


दौर ए डिजिटल में 

मुताबादिलात दस्तयाब है बहोत, 

बदलते साथी प्रोग्राम को 

मिज़ाज ओ तवियत बना लिया...


अहसासे कमतरी ओ अना का 

रिश्ता है चोली दामन का,

बांध के पट्टी आँखों पे 

खुद को अंधा बना लिया....


*****************


Meanings :

फ़ितरत=स्वभाव 

खुदपसंदी=आत्म मुग्धता

दीन=धर्म 

रूहानियत=spirituality/आध्यात्म 

मुताबादिल=विकल्प

दस्तयाब=हस्तगत याने available

बरपा=उपस्थित 

ज़ल्वा=तड़क भड़क

अहसासे कमतरी=हीन भावना 

अना=अहंकार/Ego

जो अंदर वो बाहर : विजया



जो अंदर वो बाहर 

+++++++++

🔸प्रकृति और प्रेम जैसे पर्यायवाची हैं. 


🔹दोनों ही "जस के तस" देखने, स्वीकारने और जीने की बातें.


🔸जीवन के छोटे छोटे सामान्य प्रसंगों को हम सहज सजगता से आत्मसात् कर पाएँ तो  धर्म, धार्मिकता, नैतिकता, आध्यात्म इत्यादि के घोर घुमावदार प्रस्तुतीकरण की व्यर्थता समझ आ सकती है.


🔹नन्हे नन्हे कोमल हाथ जब स्पर्श करते हैं तो हमारे अपने वजूद का पूरा प्रेम जैसे रौं रौं में प्रस्फुटित हो उठता है. 


🔸बालक मन जो चाहता है वही कर गुजरता है, कुछ ऐसा नहीं होता बहुतांश में जो किसी और या स्वयं के लिए ख़तरा हो. छोटी छोटी मासूम शैतानियाँ जो खुली कल्पनाओं से उपजी होती है. जो अंदर वह बाहर, कोई लीपा पोती नहीं.....और अंदर भी स्फटिक सा स्वच्छ क्योंकि कोई परिभाषित और अनुकूलित विकृति का हावी होना नहीं.


🔹इसी चित्र को लें, बालक परी रूप धारण कर मां की घुड़सवारी कर रहा है जैसे dominate कर रहा है लेकिन डॉमिनेशन के वाइब्स नहीं है, फूल-छड़ी से मारने का उपक्रम कर रहा है हिंसा के वाइब्स नहीं है. मां के केश पकड़ कर खिंच रहा है, प्रेम और वात्सल्य से भरपूर माँ की मुखमुद्रा पर आनंद के भाव है और पूरी देह में सहज कोमल्य. प्रकृति की उत्फुल्ल और गरिममयी उपस्थिति स्पंदनों में और अधिक खिलावट ला रही है. इस विवरण को ध्यान में रखते हुए ज़रा चित्र का एक बार अवलोकन किया जाय.😊


🔸देख रहे हैं कि भारी भरकम शब्द और युक्तियाँ मिलकर हमारी नैसर्गिक यात्रा को जटिल बना देते हैं. चर्चा परिचर्चा के नाम अधिकांशतः बुद्धि-विलास होता है. आत्ममुग्धतायें और हीन भावनाएँ मिल बैठती है, छद्म गुरुबाज़ी का इतना बोलबोला हो जाता है कि असली मक़सद बैक सीट ले लेता है...बोले और लिखे करोड़ों शब्द लगातार उपद्रव करते रहते हैं. हाँ, चालाक बुद्धि इन सब को जस्टिफ़ाई कर ही देती है.


🔹इस चित्र से क्यों ना हम एक सरल सा संदेश लें....अपनी मनस्थिति को बाल-सुलभ या मातृ-सुलभ बना कर देखें और चीजों को विषम ना बनाएँ.

अनुभूतियां स्वतः ही आगे का मार्ग प्रशस्त करने लगेगी.

आचार ए इश्क़....



आचार ए इश्क़...

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ये बोझे 

जो बड़े खूबसूरत लगते हैं 

परी चेहरा लिए 

हाथ में पंख 

और चेहरे पे शोख़ियाँ बिखरे

बड़े ज़ालिम और संगदिल होते हैं...


ये किरदार...

रूह की बदसूरती को 

ढाँपे जिस्मानी अदायें 

चाबुक से लम्स

जो ना जाने कब 

खून आलूदा कर डालते हैं 

पहुँचा कर चोटें 

पूरे वजूद को...


बड़ा लुत्फ़ आता है 

शुरुआती दौरों में 

महबूब की बाँकी अदाओं संग 

इश्किया लफ़्फ़ाज़ी को सुनकर 

जो "Mixed Pickle" की तरह 

ज़ुबान को ज़ायक़ा देता है 

मगर पूरे निज़ाम का 

बेड़ा गर्क़ कर देता है...


आम, गाजर, अदरक,

नीबू, मिर्च, लहसुन की तरह ही 

दोनों जहां की ज़िंदगानी

जनम जनम का साथ 

एक दूजे में सोचों के एक से अक्स 

क़समें, वादे, अहद 

सीरीं ज़ुबान और अल्फ़ाज़े शहद 

इंतज़ार और दीदार का बेआख़री क़सीदे

पुराने राब्ते तआल्लुक़ नदीदे 

बायलोज़ी, सायकॉलोज़ी, फ़िलासफ़ी और 

शायरी के तेल में डलते है...


वही आचार ना जाने कितनी टेबलों पर 

मर्तबान बदल बदल कर सजता है 

कभी सची मोहब्बत

तो कभी रोमांच भरा आग़ोश 

कभी बुझना बरसों की प्यास का 

कभी नई प्यास का जनम

नए नए चटखारे 

बेहद फूले अना के ग़ुब्बारे...


Bonus Lines :


मयखाने की जुबां में कहूँ ग़र तो 

बार बार "ओल्ड वाइन इन अ न्यू बोटल"

नया चहकना, नया महकना 

नयी क़िस्म का लड़खड़ाना 

पुराने ढर्रे का सम्भाल लेना 

नया साक़ी, नए पैमाने, नयी महफ़िल

नयी कश्ती, नया मल्लाह, नया साहिल...

Wednesday, 24 August 2022

सूर्यास्त के उस पार...

 


सूर्यास्त के उस पार....

###########

करता है कोई प्रतीक्षा मेरी 

सूर्यास्त से ठीक बाद 

विद्यमान है नियति मेरी 

सूर्यास्त के ठीक बाद,

जहां जामुनी रंग के पर्वत 

डटे हुए है शांति से 

वहीं तो मिलना है मुझे 

ख़ज़ाना शाश्वत प्रेम का...


सूर्यास्त के उस पार 

कोई बहुत सुंदर और आतुर 

मेरी प्रतीक्षा में है 

नितांत अकेला कोई,

केश उसके सुनहरे है 

मरुभूमि की उजली बालू के रंग के 

आँखे उसकी चमकती है 

जैसे हथेली में हो हीरे...


सूर्यास्त के बिलकुल निकट 

अवस्थित है एक घर मेरे लिए 

जहां का संसार है सुकून भरा

बिलकुल स्वर्ग सा?

बता दूँ तुम्हें आज 

इस विदा की घड़ी में 

पाओगे मुझे तुम 

सूर्यास्त के ठीक बाद...

तजुर्बे...

तजुर्बे...

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अस्सी के दशक में जब इंटर्नेट और सोसल मीडिया का चलन नहीं  था, मैं एक पोस्टर अपनी Management Classes और Work Shops में अक्सर टंगाया करता था (तस्वीर दे रहा हूँ) और यह जुमला, जिसे Physicist Emil Lenz के Lenz's Law से जोड़ कर कहते थे,  मेरे लेक्चर्ज़ में किसी ना किसी हवाले से  इस्तेमाल हो ही जाता था :


"Experience is what you get when you don't get what you wanted." 

(तजुर्बा/अनुभव वह शै है जो तब हासिल होता है जब वो नहीं मिलता जिसकी ख्वाहिश रही होती है 😊). 


वाक़ई यह तजुर्बे का सच है. सब कुछ लुटा के कुछ लोग होश में आ जाते हैं और चीजों को सही कर लेते हैं...और कुछ repeat performance देते हुए खुद को साबित करने की नाकाम कोशिशें करते रहते हैं.


कुछ तजुर्बे illusions याने इख़्तिलाले हवास याने मतिभ्रम की मानिंद होते हैं. हम सोचते जाते हैं और महसूस भी करते हैं सब सही हो रहा है और उसके लुत्फ़ में दीवाने हुए जाते हैं जब कि हम खुद ही अपना नुक़सान किए चले जाते हैं. एक कुत्ता जैसे सूखी हड्डियों को मुँह में भर लेता है....चबाने के दौरान उसके तालु और मसूढ़ों से खून का रिसाव होता है..वह अपने ही खून का ज़ायक़ा लिए जाता है, बड़ा खुश होता है और लगातार ज़ख़्मी होता जाता है...कभी कभी तो ऐसा ज़ख़्म जानलेवा भी हो जाता है.


जैसा कि मैने एक जगह कहा है, हम तजुर्बों से सीख लेकर आगे के लिए सही कर सकते हैं मगर उसके लिए होशमंदी का होना ज़रूरी है. हमारी नाकामियाँ हमारी कामयाबी के महल के लिए 

खम्भों (posts and pillars) का काम कर सकती हैं. failures can be great feedbacks for designing future course of action. नाकामियाँ कामयाबी की जानिब पहुँचने के लिए सीढ़ी का काम कर सकती है, बस हमारा नज़रिया कुछ ऐसा ही हो.


अच्छे तजुर्बे ताज़गी और ताक़त देते हैं. भरपूर जीने का हौसला देते हैं. हम अपने इर्दगिर्द ख़ुशियाँ बिखेर सकते हैं. ज़रूरतमंदों से अपने इल्म को बाँट सकते हैं और उन्हें भी कामयाबी की तरफ़ आगे बढ़ने में मदद कर सकते हैं.


कुछ रूहानी तजुर्बे भी होते हैं जो गूँगे के गुड़ जैसे होते हैं. उनका बस एहसास होता है, उनका इजहार अल्फ़ाज़ में नहीं किया जा सकता...बस वाइब्ज़ में ही मुमकिन होता है. उनके पहुँचने के लिए माहौल और मौजूदगी के इलावा लेने वाले के नुक़्ता ए नज़र की भी बात भी अहम होती है.


कुछ तजुर्बे फ़क़त ख़याली पुलाव होते हैं जो दीमाग की हांडी में मुसल्सल पकते रहते हैं और चालाक लोग अपने जैसों को ही परोसते रहते हैं (यह chain बदस्तूर जारी रहती है) या मासूमों/बेवक़ूफ़ों को शिकार बनाते रहते हैं. आजकल इसे Marketing में शुमार करते हैं....इस तकनीक का इस्तेमाल आपको इन दिनों ज़िंदगी के हर मैदान में दिखायी देगा.


दिल तो करता है कि अपने सारे तजुर्बों को सिलसिलेवार या रैंडम यहाँ शेयर करूँ मगर रुक जाता हूँ क्योंकि अभी जाँ बाक़ी है.😊







सुकून : विजया


सुकून

++++

खोजती रही थी

बाहर जब तक

उधार में मिलता था

सुकून मुझ को,

माँग लेता था वापस

अचानक कोई

या लौटा देना होता था

मुझ को ही उस क़र्ज़ को

एक मुश्त या किश्तों में....


.....और एक दिन

खोलकर रख दिया था

मैंने दिल को उसके सामने,

सिखा दिया था उसने

होशमंदी के साथ 

बो देना सुकून

मेरे अपने ही वजूद के खेत में

देखते समझते 

सराहत के संग

करते हुए तस्लीम 

हक़ीक़तों को...


सींचा किया था मैंने

इस नायाब खेती को

मुस्बत नज़रिए के पानी से,

लहलहा रही है अब

हरी भरी फ़सल

और

जी रही हूँ मैं

एक पुरसुकूँ ज़िंदगी

उसके साथ...


(सराहत=स्पष्टता, तस्लीम=स्वीकार, मुस्बत=प्रमाणित)

मैं और तुम, तुम और मैं...: विजया

 मैं और तुम, तुम और मैं...

++++++++++++++

जैसे जुदा नभ से है धरा 

रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम 

तुम और मैं...


जैसे अश्रु हैं नयन से अलग 

जैसे वृष्टि मरुथल से रुष्ट 

वैसे ही तुम और मैं विलग 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम

तुम और मैं...


कभी दिवस का अवसान देख 

निशा के प्राकट्य को देख 

पुष्प की मृत्यु को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...


शशि का अवरोह देख 

रात्रि का आरोह देख 

पत्तों की झरन को देख 

रूप के क्षरण को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...


दो तट है मैं और तुम 

मिल सकेंगे कैसे 

मैं और तुम 

राहें हैं अपनी है अलग अलग

कैसे जुड़ सकेंगे 

मैं और तुम 

दीठ एकांगी मेरी तेरी

मुड़ सकेंगे कैसे 

मैं और तुम...


जैसे पृथक है रजनी प्रकाश 

जैसे पुष्प आँधियों से रुष्ट 

टूटा टूटा है अपना सम्बंध

मिलन पर भी है प्रतिबंध 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम...


मेरा हृदय कोमल पंख सा 

मेरा सोच है क्यूँ पंक सा 

कैसा मेरा निर्बल संवेदन

असह पीड़ा और  वेदन 

उबरूँ मैं कैसे..उभरूँ मैं कैसे..मेरे पिय !

आए चैन कैसे मेरे हिय...


जैसे जुदा नभ से है धरा 

रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम 

तुम और मैं...


कभी दिवस का अवसान देख 

निशा के प्राकट्य को देख 

पुष्प की मृत्यु को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...

तुम्हारे लिए....


तुम्हारे लिए...

#######

गाऊँगी मैं तुम्हारे लिए 

बस तुम्हारे लिए 

खोज लूँगी तुम्हें 

जाओगे तुम जहां 

जहां हो नज़र 

मुझको पाओगे वहाँ 

तुम ना हो तो 

सूना है सब कुछ यहाँ 

जिऊंगी मैं बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


हर पुकार की 

तुम आवाज़ हो 

मेरी हर धुन के 

तुम्हीं साज हो 

राज की तरह 

तुमको छुपाऊँगी मैं 

हो तुम्हीं मेरे गीत 

गुनगुनाऊँगी मैं 

सजाऊँगी महफ़िल तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


ख़्वाब मेरे ख़ातिर 

छोड़ तुम चल दिए 

अकेली मैं कैसे 

रह पाऊँ तुम बिन 

क्या है तेरा पता 

सोचती मैं पल छिन 

मेरे दिल का भी है 

अपना ही जेहन 

झुक जाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


दीवानी ये क्या 

वजह हो गई 

तुम को ना जाने कैसे 

कहाँ ले गयी 

बारिशी घुँघरुओं की 

रुनझुन हो तुम

अनलिखे अनकहे 

अल्फ़ाज़ों में  तुम

कहूँगी ग़ज़ल बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


दिल तुम्हारा 

तुम्हें याद दिलाता रहे 

सिवा प्यार के 

कुछ ना हो राह में 

प्यार ही प्यार हो 

दोनों की चाह में 

मेरी अनछुई धड़कनों

मैं है तू ही तू 

धड़कूँगी मैं बस तुम्हारे लिए  

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...

जश्ने मोहब्बत : विजया



जश्ने मोहब्बत...

++++++++

बंद कर के दरवाज़ा 

मुँह फेर लिया था तू ने 

बेपरवाह हो कर 

करते हुए बेक़दरी 

मेरे बहते हुए आंसुओं की..


यही मकाँ था 

जिसे लाख कोशिशों के बाद भी 

ना बना पाई थी मैं 

घर अपना..

तुम्हारा भी, मेरा भी...

काश तुमने मुझे सुना होता...


आज हाज़िर हूँ मैं 

उसी दहलीज़ पर 

अपने वजूद का जश्न मनाने 

जो पा सकी थी फिर से मैं 

हुई थी मैं जब मुख़ातिब

इस दर-ओ-दीवार से 

बाहिर की दुनिया से...


टूटा हुआ पलस्तर-खिले खिले रंगीन फूल 

बंद दरवाज़ा-मेरा आज़ाद रौं रौं 

हँसती खिलती गा रही मैं 

सब मिलकर 

सुना रहे हैं दास्तान 

मेरे खोने और पाने की...


सुनकर गीत मेरे 

चला आए शायद तू भी  

होने को शरीक 

दिल ओ जान से 

इस जश्ने मोहब्बत में 

जहां नहीं है ज़रूरत 

किसी अनमने 'और' की...

Saturday, 23 July 2022

यह कैसा तेरा सावन है....

यह कैसा तेरा सावन है ?

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लगा आग उत्पात मचाता 

बिन कहे क्या क्या कह जाता 

पीड़ा से रौं रौं व्यथित रे 

जलता धू धू अब दामन है 

यह कैसा तेरा सावन है ?


घूँट हलक से उतर गया है 

कंठ किसी का जल ही गया है 

टूटे हैं सारे पैमाने 

लागे सब कुछ अकामन है 

यह कैसा तेरा सावन है ?


नज़रें सारी बदल गयी है 

रेत हाथ से फिसल गयी है 

जिस्म हुआ है रूह पर हावी 

क्यों कहते, तू चूड़ामन है

यह कैसा तेरा सावन है ?


चूड़ामन=शीश पर पहना सिरमोर आभूषण / साफा

जहां चाहो वहाँ तुम तो बरसो....: विजया

 

जहां चाहो वहाँ तुम तो बरसो...

++++++++++++++

तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो,तहाँ तुम बरसो 

सर्वांग तृप्त संतोषी तुम 

जहां मन हो वहाँ को स्पर्शों 

पर होती हूँ मैं अचंभित 

जलमय हो,बादल हठीले 

फिर तुम क्यों यूँ ही तरसो ?

तुम सावन के बादल 

जहां चाहो,

वहाँ तुम तो बरसो...


संकीर्ण स्वार्थी चिर प्यासे 

जब तब है, वो जल को खोजे 

कितना भी पिला दो उनको 

दिखलाते ज्यों नित हो रोज़े

ना जाने आस्तीनों में क्यों 

तुम फिर भी,

संपौले पोसो 

तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो,

वहाँ तुम तो बरसो...


उजड़ों को 

तुम ने खूब बसाया 

तुम ने तो सर्वस्व लुटाया 

कुंठाओ से ग्रसित होकर 

हीनत्व किसीने है दरसाया  

मैं हूँ आग बबूला चाहे 

भले ना चाहे उनको कोसो 

तुम सावन के बादल हो 

जहां चाहो 

वहाँ तुम तो बरसो...

मुझे तेरा प्यार मिल गया : विजया



मुझे तेरा प्यार मिल गया...

+++++++++++++++

छायी हुई 

सावन की घटा है 

बागों में 

तेरे फूलों की छटा है...


माना कि 

तू मुझ से ख़फ़ा है 

लफ़्ज़ों से ऊँची 

मेरी दुआ है...


सजदे में देखो 

सिर मेरा झुका है 

होठों पे अटकी

दिल की सदा है...


कैसी मैं आसमाँ 

ज़मीं पे तनहा खड़ी हूँ 

जमाना  कहे 

मैं तुम से जुड़ी हूँ...


रस्मे उल्फत को 

कर रही मैं अदा 

क्या हुआ जो तू 

मुझ से हुआ है जुदा...


ऐ मोहब्बत !

तेरा हो हर लम्हे भला 

सिखाया है जीना 

तू ने जला जला...


बता दे तू मुझ को 

मेरी क्या खता 

बेवजह मिल रही क्यूँ 

मुझे यह सजा...


यह मर्ज़ अब मेरी 

शिफ़ा हो गया 

मुजरिम ही 

मेरा गवाह हो गया...


ओ मेहरबाँ मुझे 

तेरा प्यार मिल गया 

इनायत है 

ग़म तेरा मुझे मिल गया...

Wednesday, 8 June 2022

कुछ एहसास...,

 

(१)

विष के दाग पड़े हैं तन पर 

नस नस चंदन बहता है

जीवन के उलझे धागों में 

एक सरल मन रहता है...(अज्ञात)

(२)

अहसासे गुनाह का बौझ लिए 

क्या क्या मन कह देता है 

जस का तस देखूँ यदि मैं तो 

बाधा देता रहता है...(विनोद सिंघी)

(३)

नश्वर तन है नश्वर मन भी 

आत्मा अमिट अजर अमर 

चुनाव भेद भरमाते हम को 

सत्य  जिया जाए समग्र...(विनोद सिंघी)


.

यूँ ही...

 यूँ ही...

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रह गयी 

अनलिखी 

कहानियां और कविताएँ 

बहुत सी 

मात्र इस डर से 

कि ना जाने 

अच्छी होगी कि नहीं...

चाय मेरी चाय..,,

 चाय मेरी चाय...

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☕️चरस नहीं चाय है मेरा पसंदीदा वीड...जो ग़ैरक़ानूनी नहीं है और ना ही होते है जिसके कोई साइड इफ़ेक्ट.


☕️थामे हुए होता हूँ जब जब चाय का सेरेमिक वाला कप घर में या चाय खाने में, बड़ा खुशगवार होता हूँ मैं....अच्छे अच्छे वाइब्ज़ भेजता हूँ, 


☕️चाय की चुस्की ले कर, अपनी मांसपेशियों  को रिलेक्सड पाता हूँ, मद्धम हो जाती है मेरी साँसों की लय-ताल और हृदय की धड़कन हो जाती है सटीक और नियमित.


☕️चाय के साथ मुझ में और अधिक विनम्रता, समन्वय और सामंजस्य के गुण उभर आते हैं.


 ☕️चाय पीना मेरे लिए बिना कुशन मेडिटेशन करने के समान  है....बिना काव्य पुस्तक के कविताएँ पढ़ने के मानिंद  है. 


☕️वह चाय ही तो है...बस चाय जो मेरे प्राणों में उत्साह और साँसों में सरगम बढा देती है.


☕️चाय मेरी चाय 🌱

भंगी /महत्तर...

 छोटे छोटे एहसास 

==========


टूटे नहीं अडिग रहे, 

सब झेलना मंज़ूर था 

माना कि वक्त नाज़ुक, 

और बादशाह मगरूर था 

जाति जनेऊ और भ्रमों को 

भंग कर भंगी हो गए 

तुमने मजबूर किया, 

मगर वो महत्तर हो गए...


(मुग़लों ने युद्ध बंदी क्षत्रिय सैनिकों को २ ऑप्शन दिए थे या तो इस्लाम क़बूल करो या मैला उठाओ...वीर अडिग रहे.)

भंगी बनें....

 "भंगी" बने...

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💎चाहे ईश्वर कृतृत्व को माने, प्रकृति और स्वतः सहज सृजन की थ्योरी को स्वीकारें या कार्य और कारण के वैज्ञानिक सिद्धांत को ही आधार मान कर चलें...एक बात स्वयं सिद्ध है कि चीजें सापेक्ष होती है. 


💎नियति, भाग्य, प्रारब्ध, कर्मफल, ऋण बंधन आदि की मान्यताएँ अपनी जगह ठीक हो सकती है किंतु  यह जो हम प्रत्यक्ष देखते हैं वह मुझे इस से ज़्यादा ठीक लगता है :

कुछ भी Exact और Ultimate नहीं होता. उन्नीस-इक्कीस का फ़र्क़ होता ही है.


💎हर चीज़ के एकाधिक विकल्प होते हैं और उनमें से हम अपने लिए सोच कर या जान कर या किसी के बताने पर या सहज या कोई और तरह...कुछ चुन लेते हैं....उसे प्रेक्टिकल में अपनाते हैं.


जिन्हें अपने  भावना विवेक से बढ़ कर प्रभु या प्रकृति में विश्वास हो तो इन विकल्पों को उनके द्वारा प्रदत्त मान  सकते हैं. यह theory भी सहर्ष स्वीकार की जा सकती हैं. अंतर्विरोध पर विस्तार से ज्ञान लेना देना Intellectual Exercise है जिसका कोई प्रैक्टिकल इम्प्लिकेशन नहीं होता.


💎साइकोथेरापी, CBT, graphotheraphy, NLP, ध्यान, तरह तरह के अभ्यास, संगत, देश-काल-परिस्थिति-भाव आदि के प्रभाव से हुए बदलाव हम अपनी आँखों के सामने देखते हैं. मेरे जाने वे हमारे अपने चुनाव और उसे पालन करने के श्रम से प्राथमिक तौर पर होते हैं.उसके साथ  परमात्मा, प्रकृति और आद्यशक्ति के support को व्यावहारिक/पराभौतिक/परमनोवैज्ञानिक बात के रूप में स्वीकार किया जा सकता है. 


💎मेरे जाने हमारी बहिरंग और अंतरंग की गतिविधियाँ एक दूसरे को प्रभावित करती है. हम कितने ही परेशान हों अगर बाहर की  साफ़ सफ़ाई में लग जाएँगे तो अंदर से भी साफ़ हुए महसूस करेंगे. अगर ख़ुशनुमा उद्यान में हरियाली और फूलों के बीच हो कर या अच्छी ख़ुशबू वाला पर्फ़्यूम लगा कर या अच्छी धुन गुनगुनाकर या सुन कर खुद को आनंदित महसूस करेंगे तो हमारे अपने वाइब्ज़ भी सकारात्मक और ख़ुशनुमा होने लगेंगे.


💎एक कहावत है : जैसी नीयत वैसी बरकत. एक और : जैसा खाए अन्न वैसा रहे मन. एक और : रोते रोते जाएगा तो मरे हुए की खबर लाएगा.


💎जस का तस देखें...जो देखते हैं उसे अपने विचारों में भंग कर कर के देखें...हक़ीक़त तक पहुँच जाएँगे... आफ़त का पहाड़ छोटा पत्थर या कंकर सा समझ में आ जाएगा...स्वीकार्यता आ जाएगी...हल निकल आएगा.जो सार है उस पर तवज्जो दें जो कचरा है उसे बुहार बाहर करें. क्यों ना हम "भंगी" बनें.


समस्या अंतरंग की हो या बहिरंग की. हर यथार्थ में positivity निहित होती है. बात दृष्टि की.


💎चूँकि मेरे ऐसे नोट्स का मक़सद सोचने-समझने और मनन-गुणन करने के लिए फ़ीडबेक देना मात्र है-इतना पर्याप्त.

 अनन्या बिड़ला : अनुपम सोच और गतिविधियाँ 

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💎अनन्याश्री भारत के अरबपति घराने की एक सहज सी सोचने, समझने और करने वाली लड़की है जो गायिका, गीतकार, गिटार और संतूर वादक है. जिसने लीक से हटकर संगीत को अपने मुख्य कार्य के रूप में अपनाया. क्लबों और पब्स में गिटार बजाया. अपने गानों के अल्बम रिलीज़ किए. उनका गाना "I don't want to Love" यूनिवर्सल म्यूज़िक के साथ साइन हुआ. अन्य गानों के लिए कृपया यू ट्यूब खंगालें, सुनकर और लिरिक्स को समझकर आपको ताज़गी मिलेगी, वादा है.😊


💎बिडला ख़ानदान भारत के लिए अनजाना  नहीं है. भारत के स्वाधीनता आंदोलन से लेकर औद्योगिक विकास में इस परिवार का योगदान हमेशा चर्चित रहता है. स्व. घनश्यामदास जी बिड़ला गांधीजी के निकटम सहयोगी थे. उनके पुत्र स्व. बसंत कुमारजी और उनकी जीवन संगिनी सरला जी का अवदान उद्योग के अलावा कला, साहित्य और संस्कृति में अनुपम रहा. सरला-बसंत जी के पुत्र आदित्य बिड़ला जी ने विदेशों में उद्योग लगा कर भारत की पहली MNC का उद्भव किया वे स्वयं के अच्छे भी चित्रकार थे. उद्योग जगत के लिए आदित्य जी के सुपुत्र  कुमार मंगलम बिड़ला का नाम अनजाना नहीं जो आदित्या बिडला ग्रुप के सिरमौर है उनकी जीवन संगिनी नीरजा जी एक परोपकारी महिला है जो एक शिक्षाविद और मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में गतिशील है. अनन्या पुत्री है नीरजाजी और कुमार मंगल जी की. इस परिवार में अनन्या का उदय वाक़ई में अनन्य है.


💎इस पारिवारिक पृष्ठ भूमि का वर्णन विश्व प्रसिद्ध गायिका अनन्या बिड़ला(२७-१९९४ बोर्न) का परिचय आप से कराने के लिए ज़रूरी था क्योंकि बिड़ला परिवार की इस लाड़ली ने लीक से हटकर संगीत को अपने पेशन और प्रोफ़ेशन के रूप में अपनाया है...उद्योग बहुत बहुत बाद की प्राथमिकता.

१७ वर्ष की अल्प आयु में अनन्या ने संगीत को अपनाया.

आज यू ट्यूब और अन्य चेनल्स पर उनके गानों की धूम है. 


💎अनन्या ने स्त्रियों के स्वावलम्बन को महत्व देते हुए एक माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी भी बनाई है जो स्त्रियों को व्यवसाय के लिए छोटे छोटे लोन मुहैय्या कराती है. उनके स्टार्ट आप का नाम Swatantra Micro है.


💎आक्स्फ़र्ड में पढ़ने के दौरान चूँकि खुद उस दौर से गुज़री, अनन्या ने किशोरों और युवाओं में अवसाद और अन्य मानसिक समस्याओं में support के लिए भी एक आउट्फ़िट खोला है, जिसका नाम MPOWER है.


💎चूँकि मैं उनकी पड़दादीसा स्व. सरला बिडला जी के सम्पर्क में आया हुआ हूँ, अनन्या में मैं उनका बिम्ब देखता हूँ. बसंत बाबू बिडला की जीवन संगिनी के रूप में उनका चुनाव स्वयं गांधी जी ने किया था....बिडला परिवार के सामने आर्थिक दृष्टि से सरला जी का नैहर अति सामान्य था किंतु सरला जी की शिक्षा, दीक्षा, साहित्य कला का प्रेम, शालीनता, उदारता और सहजता की दौलत अकूत थी. अनन्या के इंटरव्यू को देखते सुनते उनकी याद ताज़ा हो रही थी.


💎धनी और प्रसिद्ध घरानों की युवा पीढ़ी में अनन्या जैसे संजीदा और संवेदनशील लोग भी हैं यह जानकारी आवश्यक है इसलिए यह छोटा सा परिचयात्मक नोट मैने यहाँ दिया है. डिटेल्ज़ के लिए फ़ुट्नोट में कुछ लिंक्स दे रहा हूँ, जो स्पेसिफ़िक जानकारी आपको मुहैय्या कराएगी, अवश्य अवलोकन करें.


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notes :

१) अनन्या का फ़्री और फ़्रेंक इंटरव्यू :

https://youtu.be/bhs6oktJZb0


२) विकिपीडिया पर अनन्या:

https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%B2%E0%A4%BE


३) अनन्या के गाने :

कृपया यू ट्यूब खंगालें 😊




आधा ख़ाली : विजया

 आधा ख़ाली 

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बिता दिए थे 

जमाने मैं ने 

उड़ेलते उड़ेलते खुद को

औरों के कपों में...


करती रही इंतज़ार 

कभी तो होगा 

मेरा भी वक्त 

सिप लेने का...


और जब आया 

मेरा भी वक्त,

तो पायी थी मैने

मेरे कप में 

बाक़ियत एक लड़की की 

जिसने कुछ ज़्यादा ही 

दे डाला था...


बाक़ियत= remainder

चाय नामा : विजया

 चाय नामा (अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस)

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कहा करते थे तुम

एक से होते हैं ये चाय और रिश्ते 

बदलते हैं हालात और दबाव 

जैसे जैसे 

रंग भी बदलता है इनका...


मैं ज़रा हट कर कहती 

चाय खोल देती है दिमाग़ को 

और 

प्यार खोल देता है आँखों को, 

नहीं जानती मैं दिली रिश्तों में 

हालात और दवाब का किरदार...


और तुम्हारा लालच 

बिना चीनी चाय का कप वैसा ही 

जैसे प्यार बिना ज़िंदगानी

और माँग 'चखणे' की 

क्रेकर्स, कूकीज़, निमकी और नमकीन 

जैसे इनके बिना 

चाय का चरम सुख नहीं...


मैं कहती ज़रा हट कर 

चाय का कप समरूप होता है जीवन के 

तय होता है कि कौन सा "सब्सटेंस"

इस्तेमाल हुआ है उसे बनाने में

'चखणे' का साथ 

चाय का मज़ा कम कर देता है 

एकाध काफ़ी

मगर तुम्हें तो चाहिए ही चाहिए...


तुम दार्शनिक हो कर कह देते हो 

जब भी ठंडापन और सूनापन सताए 

चाय बनाई जाय 

उड़ती भाप और चुस्कियाँ 

उसके साथ सभी रसों के वृतांत 

'सोब ठीक कोर देगा' 

बंगला एक्सेंट में हिंदी मतलब 

'सोब ठीक आछे'😊...


चाय के प्याले पर 

हमारी असहमतियाँ 

पक कर,गल कर,कमजोर होकर, सुलझकर 

गिर जाती है ना...

तभी तो एक मत हैं हम 

चाय का प्याला बन सकता है हल

हमारी हर एक मुश्किल का...

नाराज़गी : विजया

 

उदासियों के दरमियाँ 

मेरी ख़ामोशी को 

नाराज़गी समझ लिया,

दर्द छुपा कर मुस्कुराई तो 

ताज़गी समझ लिया,

मेरी तनहाइयों का साथ 

चंद निस्बतों ने दिया,

तुम ने मेरे मरासिम को 

आवारगी समझ लिया...

अक्षय पात्र...

 


अक्षय पात्र...

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गहरे तक 

अपने ही भीतर

लगाते हैं जब गोता 

समझ पाते हैं हम 

अपने उस पहलू को 

जो होता है विद्यमान हमेशा 

और बदलता नहीं 

यही है स्व 

जो जड़ है हमारी 

सारतत्व हमारा...


नहीं होते हैं हम 

विचार अपने 

बस जानते हैं हम 

अपने विचारों को 

नहीं होते हैं हम 

भाव और संवेग अपने 

बस करते हैं महसूस 

अपने भावों और संवेगों को 

नहीं होते हैं हम 

देह अपनी 

बस देखते हैं आइने में 

अक्स उसका 

और करते हैं उसके द्वारा 

अनुभव संसार का

अपनी इंद्रियों के ज़रिए,

हम होते हैं होशमंद प्राणी 

होता है जिन्हे होश 

अंतरंग और बहिरंग का...


सारतत्व हमारा है 

एक अक्षय पात्र

होता है जो 

भिन्न सर्वथा 

हमारे परिवर्तनशील और क्षयशील

स्वरूप से....

अबाधित सारतत्व...

 अबाधित सारतत्व...

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गहरे तक अपने ही भीतर

लगाता हूँ जब गोता,

समझ पाता हूँ अपने उस पहलू को 

जो होता है विद्यमान हमेशा 

और बदलता नहीं,

यही है स्व जो जड़ है मेरी 

जो है सारतत्व मेरा...


नहीं हूँ मैं विचार अपने 

बस जानता हूँ मैं अपने विचारों को,

नहीं हूँ मैं भाव और संवेग अपने 

बस करता हूँ महसूस अपने भावों और संवेगों को,

नहीं हूँ मैं  देह अपनी 

बस देखता हूँ दर्पण में बिम्ब उसका

और करता हूँ उसके द्वारा अनुभव संसार का

अपनी इंद्रियों के ज़रिए,

मैं हूँ एक सचेत प्राणी 

होश है जिसे अंतरंग और बहिरंग दोनों का...


आध्यात्म के खिलाड़ियों की 

विशुद्धता और सम्पूर्णता की बातें 

सटीक है अपने स्थान पर,

किंतु मैं तो ठहरा 

इस जीवन को जैसा है वैसा भरपूर जीने वाला,

लगता हूँ सोचने और समझने 

बहुत से रहस्य जीवन के

एक सहज सामान्य मानव की तरह...


जाना है मैं ने अपने ही दो संस्करणों को 

एक है मेरा वैयक्तिक स्व 

जी रहा है  जो दैनदिन जीवन 

शामिल है जिसमे

अर्जन, सृजन, विसर्जन 

सम्बंध, अनुबंध और प्रतिबंध

दूसरा है मेरा सार 'स्व'

जो है पारदर्शी स्फटिक सा 

विशुद्ध चेतन स्वरूप....


किया है मैने महसूस 

हमारा सारतत्व होता है  सर्वथा भिन्न 

हमारे परिवर्तनशील और क्षयशील स्वरूप से,

कभी कभी करता हूँ अनुभूत अपने सार तत्व को 

अंतरंग ऊर्जा के रूप में 

बहने देता हूँ इसे स्वयं से होते हुए 

पहुँच जाने को एक शुभ स्थिति में...


पहुँचना है मुझे 

यथावत की स्वीकार्यता तक 

बिना आलोचनामय निर्णय विभ्रम के

बहने देकर जीवन को  मुझ से होकर 

बिना अवरुद्ध किए  उसकी ऊर्जा धारा को...


नहीं है गवारा मुझे 

नकारना अपने इन दोनों संस्करणों को, 

जगत और ब्रह्म  सत्य है दोनों ही मेरे लिए,

निखिल समग्र अस्तित्व में 

कुछ भी तो नहीं संपूर्ण सत्य या संपूर्ण मिथ्या,

जी पाऊँ मैं जीवन जैसे हो अभिनय कोई 

अभिनय कर पाऊँ ऐसे  जैसे हो जीना कोई...


जाना है मैंने 

केवल मानव ही तो है 

जिसे है अग्रिम आभास और विश्वास अपनी मृत्यु का..

बना लिया है मैने 

इस अटल सत्य के सोच को मार्गदर्शक  मेरा 

जो हो कर स्वयं स्फूर्त 

कर देता है संयोजन मेरी प्राथमिकताओं का

कर देता है समायोजन मेरी दुविधाओं का....


नहीं हूँ सम्पूर्ण मैं 

हाँ पर्याप्त हूँ मैं...

डिलीट बटन

 डिलीट बटन...

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शब्द आए,शब्द ठहरे

शब्द जिये गये...


शब्दों ने शब्दों को पैदा किया 

शब्दों ने शब्दों को पनपाया 

शब्दों ने शब्दों का खून कर दिया 

शब्दों ने शब्दों को कंधा दिया 

शब्दों ने शब्दों को जला दिया

शब्दों ने शब्दों की राख गंगा में बहा दी 

शब्द प्रेत ना बन जाए कहीं 

शब्दों ने शब्दों का गया में पिंड दान किया...


असल वाक़या कुछ यूँ हुआ :

शब्दों के पास डिलीट बटन भी था 

संग संग दबाया और सब कुछ ग़ायब...

Sunday, 3 April 2022

अपेक्षा के दर्शन की खींच तान : विजया

 


अपेक्षा के दर्शन की खींच तान 

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अपेक्षा पूरी ना हो तो दुःख होता है, यह कोई बहुत बड़ी शास्त्रीय बात नहीं. हम में से हर कोई किसी ना किसी तरह इस तथ्य का अनुभव जीवन में बार बार करता है. 


आपसी अपेक्षाएँ सम्बन्धों का आधार बनती है, एक दूजे से share करने और एक दूसरे का care करने की सबब बनती है.


अपेक्षा को नकारना मानवीय नहीं है. हाँ उसकी वजह से हमें दुःख न पहुँचे या कम से कम हो या हो भी जाए तो हम कैसे उस से बाहर आएँ यह देखने की बात है. संतुलन सम्भव है यदि हमारा जज़्बा देने का रहे, उदारता और क्षमाशीलता हमारे स्वभाव में शुमार हो, हम होशमंद हों और जिस भाव से देने वाले ने दिया उसके लिए अहोभाव और कृतज्ञता दिल में हो.


जिन्होंने स्वयं अपेक्षाओं पर क़ाबू पा लिया हो या जिनकी दृष्टि संतुलन की हो वे सामान्य व्यवहार और आपसी सौहार्द को 'अपेक्षा दुखकारी" "अपेक्षा रखने वाला हेय" आदि दृष्टियों से नहीं देखते. जिन्होंने इस सिद्धांत की  व्यापकता को आत्मसात् किया हुआ होता है उन्हें बिलकुल ज्ञात होता है कि कैसे कहाँ रेसिपरोकेट किया जाना चाहिए. 


हाँ इस नटखट जुमले : "खुद करे तो रास लीला, कोई और करे तो करेक्टर ढीला" वाली जनता का intellectual cover up मात्र होता है या आध्यात्मिक होने का ढोंग.


जीवन की अपेक्षाजनित विसंगतियों का तौड़ स्वविवेक और स्वयं का ही जागरूक साक्षी भाव है, जिसमें इसका संतुलन निहित है. उदाहरण के लिए कृष्ण के जीवन की समग्रता इस संतुलन की एक प्रतीक है.


हमारे दादीसा जिनका पूरा जीवन ही निस्वार्थ निश्चल प्रेम और तदनुरूप अपेक्षा के संतुलन का जीता जगता उदाहरण था, उनसे सुनी कहानियों में मेरी पसंदीदा एक जो विषय के लिए प्रासंगिक है, प्रस्तुत कर रही हूँ.


एक बेटा पढ़ लिख कर बहुत बड़ा ज्ञानी हो गया. गुरुकुल में किसी पोंगे पंडित ने किताबों से पढ़ा दिया कि सब रिश्ते बेकार...मोह दुखों का मूल...किसी ने तुम्हारा कुछ उपकार किया उसको उसे भूल जाना चाहिए, अपेक्षा रखना अच्छी बात नहीं. उसकी माँ बेचारी को वात्सल्य की अनुभूति थी और उसका विद्या ददाती विनयम का पाठ भी सुना हुआ था लेकिन बेटे ने शायद भृथहरी का वैराग्य शतक पढ़ लिया था...भोजन, आवास, सेवा टहल सब कुछ ग्रहण करता किंतु फिर भी माँ के साथ दम्भ से निरादर करता रहता.  देखभाल करना तो दूर  ठीक से प्रणाम पाती तक भी न करना पंडित जी के ज्ञान का बिम्ब हो गया था. पिता असमय संसार छौड़ चुके थे, निरीह माँ....🥲


माँ ने राज दरबार में गुहार लगायी. बेटे को तलब किया गया. बेटे का बयान कि मेरी उत्पति एक जैविक कार्य था, पालन पोषण माँ का एक कृतव्य...माँ की महानता इसी में है कि मुझ से कोई अपेक्षा न रखे...अपने तर्कों के पक्ष में शास्त्रों के कई उद्धरण भी उसने दिए, साक्षर जो ठहरा ऊपर से बुद्धि जीवी.


राजा ने कहा : अरे ख़याल कर यह माँ तुम्हें नौ महीने पेट  में समाए रही, कितना कष्ट हुआ था उसे तुम्हें  जनने और पालने में. पंडित बेटा बोला यह कौन बड़ी बात, हमेशा ऐसा होता आया है, युग युगांतर से. मेरी भावनाएँ और व्यवहार मेरी मर्ज़ी.


भूल गया था अपने तथाकथित ज्ञान के घमंड में माँ का किया सब कुछ.


राजा को लगा पंडित को सबक़ सीखाना  चाहिए. आदेश हुआ पंडित जी एक शिशु के वजन का पत्थर अपने पेट पर बांध कर नौ महीने बिना किसी हिलो हुज्जत के चले फिरे, सोए उठे, दैनिक कार्य करे.

कहना नहीं होगा चंद दिनों में ही पंडित की टाँय टाँय फिस्स. उसे एहसास हुआ अपनी गलती का...और माँ के चरणों में गिर गया.


मानवीय सम्बन्धों के खेल के कुछ अलिखित नियम होते हैं जिसे हम व्यवहार संवेदन कह सकते हैं. किसी अपने की अपेक्षा हो या नहीं हो हमें जो करना वांछित है वह करना ही चाहिए ना कि पंडित बेटे की तरह अपने ज्ञान की वमन करनी चाहिए.


जहां समझ और संवेदनशीलता होती है वहाँ  अपेक्षा और उसके असंतुलन से हुई पीड़ा के अवसर न्यूनतम हो जाते हैं. कहाँ कुछ होता है सौ फ़ीसदी पर्फ़ेक्ट, फिर यह अपेक्षा के दर्शन की खींच तान क्यों ?


मैं एक ज़मीन से जुड़ी होम मेकर महिला हूँ, जिसने व्यक्ति और समूह के जीवन को क़रीब से देखा है. ऐसे वातावरण में स्वयं का विकास किया है जहां प्रेम,करुणा, सनिग्धता, उदारता और शालीनता का मूर्त रूप देखा और खुद भी जीया है. मुझे इसे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि मुझे देने और पाने दोनों में ही प्रसन्नता की अनुभूति होती है. अपने और अपनों से अपेक्षा रखते हुए भी मैं अपने आंतरिक और बाह्य प्रगति पर निरंतर अग्रसर हूँ क्योंकि मैने अपेक्षा भाव को समझा है उससे उत्पन्न पीड़ाओं को संयत होते भी देखा है. हाँ मैने  अतियों से खुद को बचाते हुए अपने हर भाव और जीवन व्यवहार में अनवरत शोधन संशोधन और संतुलन को अपनाया है, और उसके परिणाम सुखखारी ही पाए हैं. अपेक्षा होना स्वाभाविक है, अपेक्षा से गुजरना ग़लत नहीं उसे लेकर बैठ जाना वांछित नहीं.


एक शांत चित्त की दृष्टि और सृष्टि बिना विचलित हुए जीवन के प्रत्येक आयाम को उसके सम्यक् रूप में देख सकती है.

अत्तर रूहानियत का : विजया

 

अत्तर रूहानियत का..

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नहीं लिख पाता प्रेम कोई

कोरे काग़ज़ पर कलम से 

हो गया है निशब्द 

जिसे भी हुआ हो अनुभूत प्रेम...


इंद्रियाँ भी है 

वरदान अस्तित्व का 

किंतु मिलन का मतलब 

महज़ उस से  ही लागाए कोई तो 

मुहब्बत का स्वाँग भर है वह 

अल्फ़ाज़ के लबादे में...


प्रेम की ख़मखयालियों  में  

फिसलकर कोई 

अनुकूल प्यार ढूँढने का यात्री हो जाए,  

तो हक़ीक़त में  रखता है उम्मीद 

वासनाओं को पूरा करने की 

सुविधाभोगी प्रेम के आवरण में...


होता है अवमूल्यन 

प्रेम की शुचिता आत्मिकता का 

जहां हो सम्बन्धों का उदेश्य बस  

लक्ष्यपूर्ति, महत्वाकांक्षा, 

अपेक्षा, सुविधा, 

देह और भौतिकता का आकर्षण...


देह स्पर्श की तरंगों का 

उत्तेजन और उत्साह 

एक निवारण है दैहिक भूख का  

किंतु इसमें प्रेम कहाँ ?


छू जाए आत्मा के तेज को 

तो कर सकते हैं सम्बोधित 

उस छुअन को 

प्रेम कह कर

देहमय भी देहतर भी...


मोहताज नहीं होता है प्रेम 

दुनियावी रस्मों का 

पंडित और पुरोहित की दिलायी 

अर्थ खोये रिश्तों की क़समों का...


प्रेम तो है अत्तर रूहानियत का,

ख़ुशी और ग़म

पीड़ा और संवेदना 

तन और मन को साथ लिए 

एक नूर शख़्सियत का...

मूक साक्ष्य : विजया

 शब्द सृजन : प्रेम

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मूक साक्ष्य...

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मूक साक्षी मात्र ही तो होती है 

मंदिर-प्रांगण के वटवृक्ष पर बंधी 

मौलि की अनेकों फेरियाँ, 

दर्शक होती है जो

हर कदम की 

गमना गमन 

शब्द और मौन 

स्थिरता और कम्पन की,

दे पाता है प्रमाण कौन 

अस्तित्व के मूक साक्ष्य के अलावा 

एकांतिक प्रेम 

अथवा 

अदैहिक आत्मीय दाम्पत्य का....


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दाम्पत्य=स्त्री और पुरुष का निकटतम सम्बंध/male female intimacy.

खेल गुणन भाग के : विजया

 खेल गुणन भाग के...

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माना कि आवश्यक है 

कौशल, चातुर्य, वाक् पटुता

संसार में उत्तरजीवन हेतु 

नहीं समझ पाते 

प्रेमिल हृदय किंतु 

खेल गुणन भाग के,

बहुत सी निश्छल सहज स्त्रियां 

जो नहीं चाहती लांघना 

अपनी निष्ठा की रेखा को

छली जाती है इसीलिए ही 

पुरुषों द्वारा कभी कभी 

उन त्रियाओं लिए 

जो हुआ करती है निष्णात 

केवल पटुता,कपट और भेद में...

रिश्तानामा : विजया

 

रिश्तानामा...

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देखा है रिश्तों को 

फूलों की तरह खिलते 

बारिश की तरह बरसते 

चाँद की तरह शीतल 

सूरज की तरह गर्म

कपास की तरह  नर्म...


देखा है रिश्तों को 

बनते बिगड़ते

एक तरफ़ा निभते

घुट घुट के जीते 

अंधेरे कोनों में रोते 

नक़ली मुस्कान लिये 

होठों को सिये

सूखी लकड़ी की तरह धू धू धधकते 

गीली लकड़ी की तरह सुल सुल सुलगते...


देखे हैं मै ने 

दिल से जुड़े रिश्ते 

दीमाग से बने रिश्ते 

इज़हार वाले रिश्ते 

ख़ामुशी के रिश्ते 

रूहानी रिश्ते 

जिस्मानी रिश्ते....


समझा है मैने 

केंद्र और परिधि के प्रेम का अंतर 

परिचय और अंतरंगता का अंतर 

खून के और बनाए हुए रिश्तों का अंतर 

आंतरिक और बाह्य का अंतर 

पसंदगी और प्यार का अंतर

मैत्री और लोकव्यवहार का अंतर....


सभी में जो जो पाया कोमन, वह है :

रिश्तों में महज़ लेने की फ़ितरत से बचना होता है 

रिश्तों में देने का जज़्बा रखना होता है 

रिश्तों को सहेजना और सम्भालना होता है 

रिश्तों के एहसास को महसूसना होता है,

बदलती है हर शै इस आलम में 

रिश्तों की बुनियाद को मगर 

टूटने और बदलने नहीं देना होता है,

लाख कहे कोई 

सहज नैसर्गिक निष्पर्यत्न है सम्बंध हमारे 

जी कर देखा है शिद्दत से सम्बन्धों को 

इन्हें तो दिलोदीमाग से निभाना ही होता है...

चाय पर चर्चा : विजया

 थीम : रिश्ते-बदलाव-फ़ित्रत

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चाय पर चर्चा...

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हम दोनों के चाय के सेसन सहज और बहुरंगी होते हैं और कई दफ़ा होते हैं घर में भी और बाहिर भी. रोज़मर्रा के घर के मसलों से लेकर प्यार मोहब्बत, म्यूज़िक, फ़लसफ़ा, लोग, घटनाएँ और ना जाने क्या क्या फ़िगर होते रहते हैं. तरह तरह की चायें, कप, ट्रेज और दूसरी चीजें...और तरह तरह की बैठने की जगहें भी मस्त माहौल बना देती है, हमारे सर्कल में हम दोनों के ये टी सेसन कई भावों और नज़रिए से देखे जाते हैं.


हाँ तो आज सुबह जो 'फ़िगर' हुआ वह ग्रुप में चल रही थीम से भी संजोग से मिल रहा है, शेयर किए ले रहे हैं😊


एक Quote जो 2016 में साहेब ने फ़ेस बुक पर share किया था memory में आ गया और उन्होंने आज फिर से share किया. मैने देखा और आवाज़ में पढ़ने लगी :


"Love is not only made for lovers, it is also for friends who love each other better than lovers. The true friend is very hard to find, difficult to leave and impossible to forget."

(कमेंट्स में original को कॉपी पेस्ट कर दिया  है)


नटखटपन के साथ साहेब की टांग खिंचाई का मक़सद As Usual. मैने इशारों में साहेब के दो गहरे वाले मित्रों (Gender neutral) को याद दिलाया, साहेब ने कप टेबल पर रखा और चेहरे पर रजपूती झलकने लगी.😀


साहेब : कहना क्या चाहती हो ?


मैं : कुछ तो नहीं. बस यूँ ही सोचा ये दोस्त तुम्हें भूल गए होंगे मगर तुम नहीं भूलोगे. पहचान नहीं पाते ना तुम इंसानों को 😃😃


साहेब : यार जब कोई फल डिलिवर होता है तो अच्छा ही तो दिखता है, ख़राब निकले तो फेंक देते हैं. अंदर घुस कर थोड़े ही देखते हैं.


मैं : नहीं तुम तो फ़्रूट शाप वाले को फ़ोन करते हो जो तुम्हारा चेला भी है (भरे पड़े हैं चेले हज्जाम से लेकर बड़े बड़े अफ़सर प्रोफ़ेसर indusrialsts etc tak) बोलेगा सॉरी सर, दूसरा भेज देता हूँ. 


बस बहने लगी "ज्ञान गंगा" 😃😃😃


साहेब : तुम जानती हो ना ये सब प्यार और दोस्तियाँ feelings की बातें होती है. जब तक feelings क़ायम रहती है हम उस ढाँचे को दोस्त समझते है क्योंकि वह feelings के लिए vehicle होता है. जब फ़ीलिंग्स नहीं बची रहती तो ढाँचे के साथ यथायोग्य 😃😃.


साहेब के पेट्ट फ़्रेज "मेरे जाने" के साथ "सब सापेक्ष है" या "Metaphors की अपनी limitations है" की वैधानिक चेतावनी  जुड़े उस से पहले ही मैने हम दोनों के फ़ेव तलत महमूद साहब के गाने ग़ज़ल लगा दिए थे, आज उनकी 98th Birth Anniv जो है.


बातों का रुख़  चाय की नई चुस्की के साथ बदल गया था. ठहाके लगे थे जब गाना आया "मेरी याद में तुम ना आंसू बहाना" और "ऐ मेरे दिल कहीं और चल." 


सच कह रहे थे साहेब feelings के एहसास अजर अमर होते हैं आत्मा की तरह, बाक़ी सब तो नश्वर शरीर की हरकतें, जिसकी जैसी करनी वैसी भरनी.😊

कब पहचाने जाते हैं : विजया

 कब पहचाने जाते हैं...

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राह पे चलने वालों का क्या 

धूल उड़ाते जाते है,

प्रेम में जो बर्बाद हुए वो 

कब पहचाने जाते हैं...


शूलों ऊपर फूल खिले हैं 

सुगंध वही और रंग वही 

वही जीना, अभिनय भी वही है 

अन्दाज़ वही और ढंग वही...


विष अमृत के अंतर को 

कैसे समझूँ कैसे जानूँ,

तेरे हाथों से दिया है तुम ने 

बस पीना, इतना मानूँ...


तट पर थम कैसे जानोगे 

सागर की गहराई को,

जाना है उस पार, क्यों रोते 

केवट की उतराई को...


क़ैद हो गए अपने घर में 

क्या जानो तुम सृष्टि को 

दृश्य देख कर बहल गए हो 

जाँचो अपनी दृष्टि को...


दृश्य, दृष्टा और पृष्ठभूमि का 

रिश्ता जब तुम जानोगे,

सच क्या है और क्या है मिथ्या 

स्वतः सहृदय हो मानोगे...

पीत रंग : विजया

 पीत रंग 

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पीत रंग पहिर नाची, मीरा रानी पीताम्बरी 

पीत रंग पुष्प भैज्यो, मित्रता है मनोहारी 

पीत सरसों खिल आई, खेती है हरी हरी 

पीत रंग परकास को, रात कारी टरी टरी...

तड़फ...

 तड़फ...

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कैसी है ये आस 

ऐसे क्यूँ एहसास 

मैं हूँ दरिया के पास 

फिर भी कैसी ये प्यास,

क्यूँ सराब से भरमाऊँ  

ये तड़फ समझ ना पाऊँ ...


कोई हुआ ना गुनाह 

नहीं रखी कोई चाह 

चला अपनी ही राह 

चाहे आह हो या वाह 

ग़म के जाम क्यूँ छलकाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


मैने पाया जब तब 

जैसे रूठा मेरा रब 

हुआ मुनसिफ़ बेअदब 

सजा दे दी बेसबब 

कैसे खुद को बचाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


हुआ ऐसा ये अजीब 

फेंक डाला है सलीब 

भूला दोस्त ओ रक़ीब 

आया खुद के क़रीब 

सुकूँ रूह का मैं पाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


सराब=मृगतृष्णा

झलक दिखाई नहीं देती : विजया

 झलक दिखाई नहीं देती...

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बेहद शोर है इस सन्नाटे में 

मुझ को मेरी 

आवाज़ सुनाई नहीं देती,


जीवन की आना पाई में 

खो गई खुद की तन्हाई में 

बाहर निकलने की इस से 

मुझे राह दिखाई नहीं देती,


ग़म के बादल छाये हैं,

मैं रोती हूँ बरसातों में 

गीले मौसम में मेरी 

नम आँख दिखाई नहीं देती,


नज़र के सामने होता जब 

नज़रंदाज़ किया करती हूँ मैं 

ना जाने कहाँ अब मैं खोजूँ 

एक झलक दिखाई नहीं देती...


(मेरी पुरानी अनगढ़ रचना)

पछतावा : विजया

 पछतावा...

+++++

बड़ी अजीब चीज़ है 

यह पछतावा भी,

ना तो सही फ़ैसले 

आपका पीछा छोड़ते हैं 

ना ही ग़लत फ़ैसले,

एक ख़लिश सी बनी रहती है 

काश ऐसा होता 

तो ऐसा हो जाता 

काश ऐसा हो पाता 

तो ना जाने क्या क्या हो जाता,

कुछ भी कहो 

कशम कश का यह दौर भी मज़ेदार

एक नए तजुर्बे सा, 

कुछ भी कहो

काश और पछतावे में भी 

बड़ा दोस्ताना होता है....


(पुराने काग़ज़ों से)

कुरबतें और फ़ासले : विजया

 कुरबतें और फ़ासले...

+++++++++++

कुरबतें 

अंधा कर देती है 

फ़ासले 

चाहे एक कदम पीछे हो कर बनाए जाय

असलियत के एहसास करा देते हैं...


क्यों हिचकिचाना 

लौटो ज़रा सा पीछे 

हो जाएगा इल्म

कि परिंदा जानता हैं

उसे लौटना कहाँ है..

समझ जाओगे तुम भी 

कितना सा फ़र्क़ है 

थामे रखने और छोड़ने के बीच...


(पुराने काग़ज़ों से)

खुद में लौट आएँ.....

 ख़ुद में लौट आएँ..

##########

ना हो तलब ना ही तमन्ना 

वह लम्हा फिर से चला आए

अब सुनें कुछ दिल की ऐसे के 

उठें ,चलें और  ख़ुद में लौट आएँ...


आँधियों में उड़ी ख़ाक से 

भर गया है घर मेरा 

साफ हो जब तलक गर्द

किसी कोने में ख़ुद को सिमटाया ज़ाए...


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती

हुआ है पानी हर दरिया का 

लगा डुबकी खुद के समंदर में

लबों को टुक भिगोया जाए...


जागना और सोना 

हैं यक सिक्के के ही दो पहलू

सोए हैं पाँव पसार जिस चद्दर पर 

हो लिहाफ़ वो सिर पे चली आए...


बीज और माटी का 

कैसा ग़ज़ब ये रिश्ता है 

दबे, नमू हो,पनपे, खिले,मुरझाए 

गिरे, फिर से माटी हो जाए...


***************

मायने :


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती=तीनों ही दूषित या polluted को जताते हैं


नमू हो =अंकुरित हो

खूबसूरत....

 खूबसूरत...

######

उगता सूरज 

पानी में उसका अक्स 

फूलों में अक्स 

बिल्लोर का प्याला 

उस में भी अक्स,

सब की ख़ूबसूरती को उभार देता है 

सूरज का अक्स,

खूबसूरत हो जाता है समाँ

हर शै खूबसूरत 

हरसू ख़ूबसूरती 

बाहिर भी...भीतर भी 

बस ऐसा ही तो कमाल होता है 

रोशन ख़यालों का...


(Please glance the pic in comments section)

जुमले पुराने काग़ज़ों से (२) : विजया

 🔹

वक़्ते जुदाई उस ने पूछा था : याद आएगी ?


कह दिया था मैने : याद जाएगी तो याद आएगी ना...😊


🔹🔹

मिला तो पूछा था उसने : क्या करती रही थी.


कह दिया था मैने : दीवारों से बातें करती थी, मगर जवाब कभी 

भी नहीं मिला.😊 (अबोला-आख़िर तुम जैसी ही तो हैं ये भी)


🔹🔹🔹

मोह निगौड़ा छूटे तो 

खोने का डर भी निकल जाए 

फिर चाहे 

दौलत हो, कोई चीज़ हो 

रिश्ता हो  या जिंदगानी...


मगर तेरा साथ 

उसे जाने कहाँ देता है 

तुम कहते हो तो मान लेती हूँ 

बीज है फलेगा तो प्रेम हो जाएगा 

फिर.....फिर......ना जाने क्या क्या,

फिर भी मुझे नहीं बदलना, 

मैं तो बीज बचाए रखूँगी 

जब मन होगा बोऊँगी😊😊


(पुराने काग़ज़ों से )

जुमले पुराने काग़ज़ों से (१) : विजया

 🔹

स्याह को मान लेने की ख़ातिर सफ़ेद को जान लेना ज़रूरी होता है.😊


🔹🔹

अना को लगी चोट को जिसने दिल में पाल कर रख लिया वह दूसरों की ख़ुशी में खुश और दुःख में दुखी नहीं हो पाता...सच तो यह है कि वह किसी से प्यार नहीं कर सकता.


🔹🔹🔹

पुराने घाव कुरेदने से नए घाव पैदा हो जाते हैं...और यह सिलसिला ताज़िंदगी जारी रहता है.


🔹🔹🔹🔹

याद भूला दी जाती मगर हमने पाल लिया था उसे ज़ख़्म बना कर....ख़यालों में रहने लगी हर लम्हा दर्द बन कर.


(पुराने काग़ज़ों से)

सफ़र में ग़र साथ...: विजया

सफ़र में ग़र साथ...

************

सफ़र में ग़र साथ 

ये तुम्हारा नहीं होता 

नसीब में मेरे भी 

किनारा नहीं होता...


मौज़ों के थपेड़ों ने 

लिख दी थी तहरीरें 

कैसे पढ़ पाती मैं 

जो सहारा नहीं होता...


मेरे इरादे ना बदलेंगे 

मीनारे रोशनी हो ना हो 

काली अमावस में 

क्या तारा नहीं होता...


लड़ना है अकेले ही 

तूफ़ाँ से तुम्हें माँझी 

जज़्बा ए जिगर का सुन 

कोई इदारा नहीं होता...


इदारा=संस्था, organisation.

पर्याप्त होना ही पर्याप्त...

 

पर्याप्त होना ही पर्याप्त...

#############

पुनर्जन्म 

मानव का ही नहीं 

मेरा भी होता है,

युगों से मैने भी खेले हैं खेल

आरम्भ-समापन-आरम्भ के

दे देता है जिन्हें मानव 

जन्म जन्मांतर योनियों के नाम,

फ़र्क़ 

दृश्य और अदृश्य हाथों का है 

ख़्वाब और तबीर का है 

तसव्वुर और हक़ीक़त का है 

मगर फ़र्क़ कहाँ 

कहीं फ़र्क़ बस समझ का तो नहीं है...


साहिल से साहिल

समंदर से समंदर 

महानद से महानद 

अनगिनत कहानियों को

देखा,झेला और अपनाया है 

ना जाने किस किस का राज 

मेरे अंतर में समाया है...


मनु का अरुण केतन

समा जाना द्वारका का 

धीवर का अनुनय

सेतु रामेश्वरम का 

अमृतघट और विषपान शंकर का 

कभी सिंदबाद

कभी सफ़र गुलीवर का 

कभी कोलंबस

कभी वास्को द गामा

कभी कप्तान कुक 

कभी रोज़-जेक नामा 

तूफ़ाँ भी देखे अमन भी 

पोशिदा सागर में 

गौहर है और चमन भी...


छूकर सागर जल को 

बढ़ती रही थी मैं 

संग लहरों के 

उतरती चढ़ती रही थी मैं,

जल में रहना है जीवन मेरा 

मुझ में जल मौत मेरी है 

रहने दो आज यहीं पर ऐ दोस्त !

वफ़ा और बेवफ़ाई की बातें बहुतेरी है...


हवा के रुख़ को 

पहचाना था माँझी ने 

कंपास की अहमियत 

जानी थी साझी ने 

ग़ैरों को मैने पार लगाया था

अपनों ने मुझे 

बार बार डुबोया था 

जब जब मेरा वजूद 

चट्टानों से टकराया था 

सागर ने 

मेरे घावों सहलाया था...


दुस्साहस किसी का 

भटका देता था मुझ को 

अनायास घनी बालू में 

फँसा देता था मुझ को 

अनगिनत दस्तानों की तफ़सील 

आज अधूरी है 

पर्याप्त होना ही 

होता है पर्याप्त दुनिया में 

क्या प्रभु की कोई भी कृति 

हर दृष्टि से यहाँ पूरी है ?

Tuesday, 8 February 2022

ख़ुशी नहीं मंज़िल : विजया

 


ख़ुशी नहीं है मंज़िल...

+++++++++++

नहीं है ख़ुशी 

कोई मंज़िल 

यह तो राह है 

चलते चलते जिस पर 

जीना है 

अपनी मस्ती में हर पल 

बटोरते हुए 

ख़ुशियाँ छोटी छोटी...


आँखों की चमक 

होती नहीं है नतीजा 

किसी बड़े हासिल का,

एक टुकड़ा मिठाई का

हाथ आना 

एक कटी पतंग का 

ठंड में भाप उठती 

गर्म चाय का प्याला 

एक खिला हुआ फूल 

एक मुस्कान किसी की 

भर देते हैं कुदरतन 

ख़ुशी के एहसास से...


ना रूप रंग 

ना धन दौलत 

ना ही ओहदा और नाम 

दे पाते हैं 

लम्बे वक्त तक 

क़ायम रह पाए 

वो ख़ुशी,

होती है यह तो 

लम्हों का गुलदश्ता

हर फूल जिसका 

होता है 

एक गहरा एहसास 

ख़ुशी का...


ख़ुशी है 

मौज़ू रूह का 

इज़हार दिल का 

जागना ज़ेहन का 

जिया जाना होश में 

बिना किसी कोशिश के 

जब खिल खिल जाए 

हर रौं वजूद की 

हर नफ़्स खुद की...

चमक...

 

चमक,,,

#####

उम्मीदों के शहर में 

बजाते रहे मायूसी का इकतारा 

क्यूँ बिखेरते रहे उदासियाँ 

रेत के ज़र्रों से कहीं ज़ियादह,,,


बरसी थी नेमतें

ना हुए शादमान तुम 

क्या होगा कोई गुनाह 

इस गुनाह से कहीं ज़ियादह,,,


शाज़ोनादिर है 

मिलना उन आँखों का 

होती है जिनमें चमक 

सितारों से कहीं ज़ियादह,,,


रहमत है रब की 

के समाया है इनमें नूरे इलाही 

खिली खिली है ये आँखें 

बहारों से कहीं ज़ियादह,,,

             ~॰~

मायूसी=निराशा, हताशा, उदासी 

ज़ियादह=अधिक(ज़ियादह मूलतः अरबी शब्द है) 

ज़र्रा=कण, नेमतें=प्रभु के उपहार 

शादमान=हर्षित (शादमान मूलतः फ़ारसी शब्द है)

शाज़ोनादिर=दुर्लभ/rare,

प्लेटिनम रिंग...

 

प्लेटिनम रिंग...

#######

प्लेटिनम सोने से बेहतर है ना ? एंगेज्मेंट रिंग को देख कर किसी ने  पूछ लिया था या कहें कि अपनी राय ज़ाहिर कर दी थी.


अक्सर मुस्कुरा देता था वह और सामने वाले को पुख़्ता एहसास हो जाता कि जैसे वह उस से मुत्तफ़िक है. रिंग लूज़ थी, निकल निकल जा रही थी, बार बार ध्यान बंट जाता...काम करते, पढ़ते, खाते, सोते उठते. डेन्सिटी ज़्यादा होने की वजह से मेटल का बौझ ज़्यादा महसूस होता था. इसीलिए तो उसी साइज़ और डिज़ाइन की गोल्ड रिंग से इस रिंग का वजन कोई दो तिहाई  ज़्यादा था. उसने झेला, सम्भाला और आख़िर में उसे तय करना ही पड़ा कि उसकी 'नो अलटरेशन' थ्योरी कामयाब नहीं होगी...कितना ही यूज टू होने की कोशिश करे वह रिंग नहीं हो पा रही थी ठीक से एंगेज उसके साथ.


ज्वेलर के यहाँ गया, उसे कहा कि रिंग को छोटी कर दे. एक्सपर्ट कमेंट थी प्लेटिनम यूनिक मेटल है जनाब उसे काट कर झाला नहीं जा सकेगा सो नए सिरे से रिंग बनानी होगी. नया नाप लिया गया और बोला यह आसान काम नहीं, समय लगेगा कोई तीन सप्ताह. 


बड़ा चैन आ गया था जब से रिंग रिमेकिंग के लिए दी गयी. वह सोचता था तब्दीली में नई होकर आएगी रिंग, बिलकुल उसी की बाएँ हाथ की रिंग फ़िंगर के नाप की. फिर तो हर समय पहन पाएगा उसे २४ गुना ७....बड़े सुकून से.


रिंग हाज़िर थी नई होकर, उँगली में भी फ़िट....मगर टाइट लगने लगी थी. हमेशा की तरह उसने ख़ामी खुद में ही देखी. उँगलियाँ फूली हुई है...ठीक ही तो है....आसानी से पहनी और निकाली जा रही है. जड़े हुए छोटे से डायमंड के साथ कितनी खूबसूरत  लग रही है....ब्ला ब्ला. मगर चैन ओ सुकून कहाँ....उँगली और हाथ बौझ नहीं सम्भाल पा रहे थे इस प्लेटिनम रिंग का. ज्वेलर की राय थी कि महीना बीस दिन पहनिए आदत हो जाएगी, बस वक़्त की बात है.


दो तीन रातें गुज़ारी....कमिटमेंट वाला इंसान था...खुद से वादा किया कि जैसा भी हो आदत डाल लूँगा. मगर हाथ भारी, अजीब सा दर्द, ज़ेहन में तनाव....जिंदी की किसी भी रोज़मर्रा की बात को ठीक से नहीं सम्भाल पा रहा था. जो ख़ुशी उस 'फ़िट-फाट' रिंग को देख कर उसकी डेलिवरी लेते वक्त मिली, वह काफ़ूर होने लगी थी. रिंग की ख़ूबसूरती, क़ीमती होने का एहसास, मेटल की यूनिक प्रापर्टीज़, प्लैटिनम की नुदरत... सब गौण हो गयी थी उसके अपने सुकून के सामने. ना कुछ सोच पा रहा था, ना लिख पा रहा था, ठीक से इंटरैक्ट भी नहीं कर पा रहा था. लगता था उँगली में पड़ी रिंग धीरे धीरे उसकी ज़हनियत और रूहानियत को लील रही है. नफ़्सी तौर पर कमजोर पा रहा था वह खुद को. जब लूज़ थी तब भी हर लम्हे तवज्जो थी रिंग की जानिब और जब टाइट हुई तब भी. जैसे आज़ाब में फँस गया था वह.


नींद नहीं आ रही थी...किताब पढ़ी...फ़ोन पर हर सोसल मीडिया एप की सफ़र कर ली मगर नींद कहाँ. हाथ का बौझ बाजू में महसूस हो रहा था...सिर में धुँध और अब फटा, अब फटा का एहसास. अपने कमिटमेंट और कनविक्शन्स के परे सोचने लगा था वह....यह रिंग उसके लिए माकूल नहीं थी किसी भी नज़रिए से . हिम्मत जुटायी उसने....उतार दी और ज्वेलरी किट में होले से रख दी. उसके लिए कहा जाता है कि वह किसी के साथ कठोर नहीं हो सकता, उसके साथ भी जो उसके साथ कठोर, भारी और दुखदायी क्यों ना हो.


बेड पर आ गया था वो.आँखे मूँद कर सोने की कोशिश कर रहा था. सोच आ रहे थे और जा रहे थे..."मैं दो एक दिन बाद फिर से उस रिंग को पहन लूँगा, सहन करूँगा..मुश्किल है नामुमकिन तो नहीं. चीनी लोगों ने तो टाइट शूज़ पहन कर नस्लों तक की ख़ातिर छोटे पाँव हासिल कर लिए.  कमिटमेंट और कनविक्शन भी कोई चीज़ होती है." 


नींद के आग़ोश में समा गया था वह.

टूटे हैं ख़्वाब : विजया

 

टूटे हैं ख़्वाब...

+++++++

कैसे हैं ये उदासियों के घेरे 

ये ग़म के बादल  घनेरे 

काश हो पाते ये बस 

जोगी वाले चंद फेरे,

समझ लिया था मैने जिसे 

रूह का अबोला इजहार 

था वो जुमलों में लिपटा 

महज़ जिस्म का एक व्यवहार,

बह गयी थी मैं हिस 

जज़्बात के दरिया में 

उतार कर भँवर में मुझ को 

चल दिया था खैवय्या

ना जाने किस नैय्या में,

आज टीस रहे हैं 

ज़ख़्म जो उस ने थे दिये 

टूट गया है प्रेम का धागा 

ना जाने इनको कैसे सिये,

बेजान बुत सी हो गयी हूँ मैं 

ना जाने कब की बिन सोयी हूँ मैं

आँखें सूनी सूनी सी है 

बिन आंसू रातों की रोयी हूँ मैं,

बिछुड़ कर चला गया 

किए थे  जिसने अहद 

ज़िंदगी भर के साथ के 

नाउम्मीदियों में डूबी हूँ मैं

टूटे हैं ख़्वाब 

एक आख़री मुलाक़ात के...

तीरे क़ज़ा...


तीरे कज़ा....

#######

हम खुद ही खुद से ख़फ़ा हो गए 

बाइत्तिला वो हमसे दफ़ा हो गए...


आए थे बनकर नेमत, सजा हो गए

कर के वादे वफ़ा के बेवफ़ा हो गए...


अनकिए गुनाहों की ज़ज़ा हो गए

शिफ़ा हो के आए वो वबा हो गए...


कोसते थे मुससल सहरोशब जिनको 

आज वो ही उनके शुमारे रज़ा हो गए...


महफ़िले चराग हुआ करते थे जिनके 

हर नज़र से हम यारों बदमज़ा हो गए...


चाहा था टूट कर तहे दिल से जिनको 

आज उनके ही हम तीरे क़ज़ा हो गए...


कही थी कई नज़्मो ग़ज़ल जिन पर 

दीवान के वो बिसरे यक सफ़ा हो गए...


***************************************

ज़ज़ा=प्रतिफल, वबा=महामारी, तीरे क़ज़ा=तीर का निशाना मारने का लक्ष्य, रज़ा=इच्छा, मुससल=लगातार, सहरोशब=सुबह शाम 


***************************************

Seraj Bhai, Vijaya, Muditaji, Brajesh Bhai और सभी साथीगण.

इसल्लाह/संशोधन की ज़रूरत है कृपया मदद करें 😊🙏

नहीं हुआ करती देरी : विजया



नहीं हुआ करती देरी....

+++++++++++

होती नहीं है 

उम्र कोई 

सादे सफ़ों के मैदान में 

खेलने की...


यह कोई नाच तो नहीं 

ना ही है मॉडलिंग 

जो कि हो जाओ तुम 

'चुके चूसे से'

साल उन्नीस के होकर...


नहीं हुआ करती 

देरी कोई 

करने को शिरकत 

महफ़िले अदब में...


होते  जाओगे 

बड़े ज्यों ज्यों 

निखरेगी और 

ये कलम तुम्हारी 

बढ़ जाएगी 

समझ जो तुम्हारी...


ग़र लिख पाओगे तुम 

कुछ अहम ओ खूबसूरत 

ताज़ा ओ मानीखेज़

खोज लेगा उसको 

कोई ना कोई 

असल पढ़ने वाला...


खुद ब खुद दुनिया 

बना लेगी जगह 

तुम्हारे लिए 

किताबों की अलमारियों में 

उम्र  के किसी भी

पड़ाव पर...


(नटखट सरदार ख़ुशवंत सिंह जी के लिखे से प्रेरित)

छाक..: विजया

छाक...

++++

(छाक=दोपहर का कलेवा जो खेत में पहुँचाया जाता है)


आबसर (राजस्थान) 1965 :

*********************

धूप बारिश में 

खेतों को तैय्यार करना 

हल जोत कर बुआई

सिंचाई, निराई, गुड़ायी

फसल काटना 

मड़ई, गहाई, छँटाई 

सब में बहता था पसीना उसका 

वही ख़ुशबू करती थी दीवाना मुझ जो 

"छाक" लेकर अपने पावों पर पहुँचती 

खिलाती प्यार से पेड़ की 

घनी छाँव में

रोटी चटनी प्याज़ लस्सी 

घड़े का ठंडा पानी 

दोनों का साथ साथ वहीं 

सुस्ता लेना 

दोनों का एक ही सपना 

बबुआ पढ़े...


बैंगलोर 2001 :

************

कृष्णमूर्ति की कम्पनी 

ना ना सब की 

जो जो वहाँ काम करे..

मैं भी सीख गयी 

कुछ कुछ बोल उनके 

खेत से छोटे नहीं 

वहाँ के आँगन चौबारे 

कहते हैं कोम्पलेक्स 

उनकी भाषा में 

बबुआ और बहु 

उसी तरह मेहनत करते 

वही मेहनत की सुकून भरी थकन 

बस ख़ुशबू पसीने की नहीं 

डीओ की या कोलन की 

मगर वैसी ही 

"छाक"

अभी भी लाती हूँ मारुति एस्टीम पर 

क्यूंकि दोनों को ही 

नहीं है पसंद फ़ूड कोर्ट का खाना 

अम्मा के बनाए 

सैंडविच, पास्ता और कासाडिला

रोटी चटनी प्याज़ और लस्सी भी 

वही ज़ायक़ा 

वही महक 

वही मुस्कान 

वही तसकीन...


(एक सच्चा वाक़या)

हार गया जो : विजया

 

हार गया जो...

++++++++


चढ़ा देती है कितनी परतें 

हर पल जीतने की आकांक्षा 

रत हो जाते हैं दिखाने में स्वयं को 

जो होते नहीं है हम दरअसल...


बन जाता है व्यष्टि का क्षेत्र 

क्रीडाँगन समष्टि का

ले लेता है बुद्धि विलास 

स्थान सहज स्पष्ट दृष्टि का...


कराने लगती है आत्म मुग्धता

ना जाने कितनी कुटिलताएँ

भ्रम स्व-विकास  के 

ले आते हैं अनगिनत जटिलताएँ...


सज जाती है 

बाज़ी शब्दों की 

अधरों की बिसात पर 

हो जाता है तिमिर हावी 

प्रकाश की बरसात पर...


यह मंचन जीत हार का 

नहीं रास आता मुझ को 

हार गया जो खुद ब खुद 

कौन हरा पाता उसको ?

हार के साथ ही जीत है....

 

हार के साथ ही जीत है...

###########

गुज़रते वक़्त के साथ 

बढ़ता गया है माज़ी 

घटता गया है मुस्तकबिल 

ज़ख़्मी हुआ है वक्त 

बंट बंट कर टुकड़ों में...


कहने लगा है वक्त 

इस सच को बार बार,

बाँटा है तुम ने ही 

तीन हिस्सों में मुझको

अपनी सहूलियत की ख़ातिर, 

मैं तो हाल हूँ 

निख़ालिस हाल...


टुक बाज आओ

अपनी फ़ितरत ए तफ़रीक से 

बाँट दिया है कितना कुछ इसने 

भले और बुरे में 

नेकी और बदी में 

गुनाह और सबाब में 

अपने और पराये में 

ख़ुशी और ग़म में...


तोड़ डाला है कितना कुछ 

अधूरे नज़रिए ने,

अता कर दी है 

भागती हुई ज़िंदगी 

बिखरी बिखरी सोचों ने,

दे डाली है सजा 

होड़ में दौड़े जाने की...


सुनो ! ना कोई दुश्मन है 

ना ही कोई मीत है 

देख लो ज़िंदगी की डोर को 

हार के साथ ही तो 

जुड़ी हुई हर जीत है...

कालनामा...

 

काल नामा

######

नहीं होता है काल का 

कोई भी स्वरूप 

दे देते है व्यवहार हेतु 

हम ही तीन रूप...


दिखता है जीवन 

निकलकर विगत से 

वर्तमान से होकर 

आगत को अग्रसर...


कल तक था 

जो भविष्य 

बनकर वही वर्तमान 

हो जाता है परिणीत 

भूतकाल में...


कल था जो बीज 

आज का पेड़ है

कल बनना है उसे 

बीज फिर...


उत्पति है 

बहिर्गमन भूत से,

मृत्यु है 

अस्तित्व भविष्य का,

मध्य में वर्तमान 

जो है यह जीवन...


होने को कालातीत 

अपना लें सजग दृष्टि 

प्राप्त कर स्पष्टता 

अपनायें  स्वीकार्यता...

बसंत का मज़ा ले लो....

 

बसंत का मज़ा ले ले...

###########

लौट कर उदासियों से 

तवस्सुम सजा ले 

बीत गया है पतझड़ 

बसंत का मज़ा ले...


ऐसा कुछ तो नहीं 

जो सब कुछ हर ले 

रुक ना बढ जा आगे 

पुरजोश सफ़र कर ले...


सूरज चंदा पहाड़ नदियाँ 

वन में क़ुदरत को देख ले 

शादमानी में ज़िंदगी है 

खुद की फ़ितरत में देख ले...


अंधेरी सुरंग के पार 

रोशनी की लकीर देख ले 

खोल आँख अपनी 

अनलिखी तहरीर पढ़ ले...

पित्राकुन....


पित्राकुन ... (*)

########

समझो, यदि होने के बाद तो बोध कहाँ  ?

पाओ, यदि पहुँचने के बाद तो पाना कहाँ ?

जानो, यदि देखने के बाद तो ज्ञान कहाँ ?


कर पाओ यदि होने से पहले 

हो जाए अनुभूत यदि क्रिया से पहले 

देखो पल्लवन यदि अंकुरण से पहले 

तो बात बने परे शब्दों के उलझाव से परे...


चलो मुस्कुरा लेते हैं 

आज फिर एक बार 

कहते हुए कि 

शुभ है प्रवेश पित्राकुन में...


देखो,बता रहा है 

*अंद्रेई  बाबा यज्ञाको (**)

जार का हुक्म

जाओ वहाँ,ना जाने कहाँ 

लाओ उसे,ना जाने  किसे  ?


(*)पित्राकुन शब्द को यदि उल्टा पढ़ें तो नकुत्रापि होगा याने कहीं नहीं.


(**) एक लम्बी सी रूसी लोक कथा की Power Lines.


🧲Please do see a beautiful painting in the comments section.