Monday, 19 September 2022

जो अंदर वो बाहर : विजया



जो अंदर वो बाहर 

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🔸प्रकृति और प्रेम जैसे पर्यायवाची हैं. 


🔹दोनों ही "जस के तस" देखने, स्वीकारने और जीने की बातें.


🔸जीवन के छोटे छोटे सामान्य प्रसंगों को हम सहज सजगता से आत्मसात् कर पाएँ तो  धर्म, धार्मिकता, नैतिकता, आध्यात्म इत्यादि के घोर घुमावदार प्रस्तुतीकरण की व्यर्थता समझ आ सकती है.


🔹नन्हे नन्हे कोमल हाथ जब स्पर्श करते हैं तो हमारे अपने वजूद का पूरा प्रेम जैसे रौं रौं में प्रस्फुटित हो उठता है. 


🔸बालक मन जो चाहता है वही कर गुजरता है, कुछ ऐसा नहीं होता बहुतांश में जो किसी और या स्वयं के लिए ख़तरा हो. छोटी छोटी मासूम शैतानियाँ जो खुली कल्पनाओं से उपजी होती है. जो अंदर वह बाहर, कोई लीपा पोती नहीं.....और अंदर भी स्फटिक सा स्वच्छ क्योंकि कोई परिभाषित और अनुकूलित विकृति का हावी होना नहीं.


🔹इसी चित्र को लें, बालक परी रूप धारण कर मां की घुड़सवारी कर रहा है जैसे dominate कर रहा है लेकिन डॉमिनेशन के वाइब्स नहीं है, फूल-छड़ी से मारने का उपक्रम कर रहा है हिंसा के वाइब्स नहीं है. मां के केश पकड़ कर खिंच रहा है, प्रेम और वात्सल्य से भरपूर माँ की मुखमुद्रा पर आनंद के भाव है और पूरी देह में सहज कोमल्य. प्रकृति की उत्फुल्ल और गरिममयी उपस्थिति स्पंदनों में और अधिक खिलावट ला रही है. इस विवरण को ध्यान में रखते हुए ज़रा चित्र का एक बार अवलोकन किया जाय.😊


🔸देख रहे हैं कि भारी भरकम शब्द और युक्तियाँ मिलकर हमारी नैसर्गिक यात्रा को जटिल बना देते हैं. चर्चा परिचर्चा के नाम अधिकांशतः बुद्धि-विलास होता है. आत्ममुग्धतायें और हीन भावनाएँ मिल बैठती है, छद्म गुरुबाज़ी का इतना बोलबोला हो जाता है कि असली मक़सद बैक सीट ले लेता है...बोले और लिखे करोड़ों शब्द लगातार उपद्रव करते रहते हैं. हाँ, चालाक बुद्धि इन सब को जस्टिफ़ाई कर ही देती है.


🔹इस चित्र से क्यों ना हम एक सरल सा संदेश लें....अपनी मनस्थिति को बाल-सुलभ या मातृ-सुलभ बना कर देखें और चीजों को विषम ना बनाएँ.

अनुभूतियां स्वतः ही आगे का मार्ग प्रशस्त करने लगेगी.

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