कविता का 'जीर्णोधार' करके थोड़ा संशोधन करके ग्राह्य बनाने का उपक्रम है यह...कविता चार भाग में पेश हुई है.
एक बिछुडना अनूठा सा,,,
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(१)
बिछुड़ना : ध्वनि मौन की,,,
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भीड़ में उस दिन तुम ने
छोड़ दिया था नितांत अकेला उसको
तेरे बिछुड़े हाथ की तलाश में
कहाँ कहाँ नहीं भटका था वह
मिले थे वे परिचित चेहरे
जो मान्यताओं के चाबुक से कर रहे थे लहू लुहान
उसके नग्न भग्न अस्तित्व को,
बन कर दंडाधिकारी सुनाए जा रहा था झुंड
एक बिन माँगा फ़ैसला
करते हुए एक तरफा विवेचन
उसके अनकिये अपराधों का,,,
किया जा रहा था साबित
गलत है वह....सरासर ग़लत है वह
और...इस से भी ज़्यादा गलत बन सकता है,
जब जब खुले और दर्दाए थे रिसते घाव उसके
खुल गयी थी दया के दिखावे के साथ साथ
नमक भरी मुट्ठियाँ
मरहम की बात जब जब उठी
उन्होंने भी याद दिलाया...उस को भी याद आया था
कोई ऐसा भी आया था जीवन में
जिसने नज़रों से सहला कर
भर डाला था जन्मों पुराने घावों को,
जी खोल कर दी थे जिसने मरहम मुस्कानों की
मगर एक जल-जला अचानक ऐसा आया था
कि कुरेद कर चुपके से
बना दिया था हरा सभी घावों को,
आपा धापी में चल दिया था वह शोख़
फिर मुँह छुपा कर...
बोलो ! चल क्यों दिए थे तुम इस तरह ?
पुकार बैठा था वह तुम को,
बुलाने लगा था दे देकर आवाजें,
चले आओ ! चले आओ !
सोच थी जेहन में :
साथ गुजरे लम्हे....देने पाने के अनथक दौर
फिर से लौट आयेंगे..
पल दो पल के लिए ही क्यों ना..
ताकि बिछुड़ेंगे फिर से तो एक निश्छल मुस्कान के साथ,
और फिर मिलने तक
इसी मुस्कान को भग्न प्रेम की विरासत मानते हुए
जी लेंगे हँसते हँसते,,,
करना चाहा था उसने
तुम से ही तुम्हारी शिकायत
मगर सूख गए थे उसके शब्द सारे
सूख चला था आँखों से बहता पानी भी,
नहीं कह सकता था वह अब कुछ भी
जो भी था रह गया था बस मौन हो कर
सुनायी दे रही थी बस :
Sound Of Silence...ध्वनि मौन की,,,,
(२)
खड़िया से लिखी इबारतें,,,
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हर सुबह तुम्हारी
शुरू होती थी
उसके ही नाम से
हर शाम उसकी
गाती थी तराने
तुम्हारे ही नाम के
तुम थी हीर और वो रांझा था
ज़िंदगी का पल पल ही साँझा था
वो ही तुम्हारा हमदम हमनवाँ हमइरादा था
हर नफ़स में दोनों का ज्यों आधा आधा था
लगता था साथ एक दूजे के
हर संगी बंदी और आज़ाद भी था
दो जिस्म एक जान का ख़िताब
तुम्हारा ही तो इजाद था,,,
तुम्हारे हर इज़हार में
होता था कुछ ऐसा
जो शिद्दत से बताता था के
समझ लिया है तुम ने अब
प्यार वफ़ा चाहत और ज़िंदगी को
रूह और जिस्म को
उस को और ख़ुद को
रुक जाता था हर सफ़र तुम्हारा
आकर उस तक
कहती थी तुम बार बार :
"तुम्हीं तो मेरे सफ़र का आग़ाज़ हो
तुम्हीं तो हो मंज़िले मक़सूद मेरी"...
वो बातें...वो मुलाक़ातें
वो दिलकश दिनों की हक़ीक़तें
वो ख़्वाबों से भरी महकती रातें,
यही तो कहती थी तुम :
"नहीं है ज़रूरत मुझ को अब किसी भी और की
लौट आयी हूँ अब मैं ख़ुद की जानिब
पहचान लिया है मैं ने अपने 'एसेन्स' को
समझ चुकी हूँ मैं 'समर्पण'और 'निष्ठा' को,,,
हर मुश्किल तुम्हारी का हल वो था
हर लड़खड़ाहट में सहारा तुम्हारा वो था,,,
याद आ रही है कहानी टोलस्टोय की माँ की
अतिभावुक अतिसंवेदनशील होती थी वो
थीएटर में हर भावनात्मक दृश्य रुलाता था उसे जार जार
बार बार पौंछने बहते हुए आंसू
चाहिए होता था टिशू पेपर का अम्बार
ठिठुरती ठंड में कोचवान रहता था चौक चौबंद
मैडम को बिना एक पल गँवाए पेलेस तक लेजाने को
ठंड की मार गर मार देती एक कारिंदे को
तो दूसरे को होना होता था तुरत हाज़िर
व्यथित मैडम ना जाने कब निकल आए भाव विह्वल हो कर
रोते रोते हो जाती थी मलका साहिबा सवार बग्घी में
जीती हुई उस जज़्बाती ड्रामा को
बिलकुल बेपरवाह कोचवान की मौत से,,,
भावना का कुछ ऐसा ही खेल तो
खेल लिया है तुम ने,
क्यों मिटा दिया है तुमने वो सब
जो लिखा था अपने दिलो ज़ेहन पर
ख़ुद तुम ही ने अपने हाथों से ?
देकर बौद्धिक तर्क और दलीलें
पलट रही हो अपनी ही कही बातों से
क्यों पहना रही हो जामा उदारता का
अपनी ही कमज़ोरियों को
क्यों खड़ा कर रही हो कटघरे में
समझी स्वीकारी वफ़ादारियों को
उड़ा दिया है वैसे ही तो सब कुछ तुम ने
वो कशिश वो रवानी वो मोहब्बतें
जैसे हटा देता है डस्टर ब्लैक बोर्ड से
खड़िया से लिखी इबारतें,,,
(३)
मौन का सम्बोधन,,,
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मौन उसका तुम को कुछ ऐसे सम्बोधित कर रहा था :
"नहीं टिकती ना प्रेम की परत...पाली हुई कुंठाओं पर
करते नहीं ना प्रतीक्षा...उम्र के तकाजे परिचय से प्रेम तक
होती है दुनियावी रिश्ते की शुरुआत
शहज़ादे के परी को चूमने से
और आख़िर में एक तुड़ा मुड़ा सा मर्द देखता है
एक सहमी सहमी सी औरत को टेबल के उस पार,
जिस्मानी ज़रूरियात को पूरा करने के ताल्लुक़ भी
ढल जाते हैं जिस्म ओ जवानी ढल जाने के साथ,
रसूख़ और अनापरस्ती के रिश्ते भी
हो जाते हैं ज़वाल को हासिल, वक़्त बदलने के बाद,
ख़ुद के खोखलेपन को भरने का सामान नहीं होता बाहिर कहीं
पाटने होते हैं ये गड्ढे ख़ुद की होशमंदी और वजाहत से ही
नहीं मिलते निखलिस्तान सहरा में बेतहाशा दौड़ने से
मरीचिकाएँ देती है छलावा पानी होने का,,,,
"नहीं है कोई मुहिम अंजाम बता कर लौटा लाने की
बस है फ़क़त एक 'रिमाइंडर' हल्का सा
क्या नहीं बैठ सकते दो आज़ाद परिंदे एक ही डाल पर ?
क्या जीने के लिए ज़रूरी है यूँ सौंप देना किसी को ?
बात कर रहा हूँ अस्तित्व बोध की...जात की वुज़ूद की
जो तुम ने सुनी थी.... तुम ने सोची थी...तुम ने स्वीकारी थी
बढ़ निकली थी तू इस अनंत यात्रा में थामे हुए हाथ मेरा
कभी भी नहीं माँगा था मैं ने तुम को तुम से
चाहा था तुम्हारे अस्तित्व अस्मिता और सारतत्व को
यह झीना सा अंतर याचक और प्रेमी का
शायद समझ नहीं पायी तुम,,,
जब देखता हूँ बेमौत मरते उस कोमल अस्तित्व को
उभरा था जो संग में मेरे
हो उठता है व्यथित रोम रोम मेरा,
हो गया था हावी इस बोध पर मोह जैसा कुछ
जो आ चुका था एक चोर की तरह बीच तुम्हारे और मेरे
शायद भगा देते हम मिल कर इस जाने पहचाने प्रवंचक को
मगर बिछुड़ना भी तो एक नियति है मिलन जैसी,,,
"पीड़ा इसकी नहीं कि अकेला हूँ मैं
अकेलापन मेरा आरम्भ था, एकाकीपन मेरा अंत और निष्कर्ष है.
तुम जो खुद की पहचान खुद से करने चले थे
निखार कर स्वयं को
लिए हुए थे चाह अपना अस्तित्व स्वयं उभारने की
आज क्यों झुका रहे हो अपने आप को उन मूल्यों के आधीन
जो कभी नहीं स्वीकारे हैं तुम ने
क्यों अपना रहे हो बौद्धिक चालाकियाँ
मूल में जिनके सिवा आत्मिक विनाश के कुछ भी नहीं है
थक गए हो तो सुस्ता लो...गुस्से में हो तो बिखर पड़ो
जान लो ख़ुद को आइने के सामने लाकर फिर से
क्या है तुम्हारा इष्ट, श्रेय और अभीष्ट !
"शुक्रिया !
मुझे अकेलेपन का उपहार देने का,
मुझे मुझ तक लौटा लेने का ,
उन मुस्कानों का...उन फूलों का
जो तेरे मेरे दरमियाँ खिले थे,
महकना चाहा था जिनकी खुशबू से तुम ने
सच ! यह तेरी-मेरी खुशबू है,
जब जब फैलेगी हरसू
थोड़ी सी सुगंध उसकी भी होगी जो तहे दिल तुम्हारे साथ था,
जब खिली थी पहली कली
शबनम ने जमाया था आसान प्यार से पत्तों पर
याद है ना एक दौर ऐसा भी आया था
जब हम तुम पिघल कर एक होने चले थे,
इन सभी एहसासात और यादों का सरमाया
बस हो जाए नींव स्वयं हमारे ही 'प्रेम' हो जाने की !
आमीन ! "