वो और मैं,,,
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वो : खो कर तुम्हें
दिख रहा हूँ बुझा बुझा सा
सुलग रहा है अलाव भीतर मेरे,,,
मैं : गँवा कर तुम्हें
मिट गयी है तपिश तन मन की,
ताज़गी ओ तरावट है
अब मेरे दिलो रूह में,,,
वो : तुम्हें खो देना,
जैसे भर गया हो दर्द सारा
ज़िंदगी की कच्ची सुराही में,,,
मैं : गँवा कर तुम्हें
हुआ एहसास
बह रहा है प्यार ही प्यार हरसू,,,
वो : तुम्हें खोने में
डरा रहा है आसमाँ घनघोर काला
हो रही है बारिश भी मुससल
संग बिजली की कड़क के,,,
मैं : तुम्हें गँवाया तो जाना
बताया है कोई नया फ़र्ज़
अत्ता करने को परवरदीगार ने,
और छू रही है बारिश की सुखद बूँदें
मेरे तपते बदन को,,,,
वो : तुम्हें खो देना
करा रहा है महसूस
जैसे खोखली हो
कायनात सारी,,,,
मैं : गँवा कर तुम को
भरने लग गया हूँ मैं
अपने भीतर के
अनगिनत छेदों को,,,
वो : तुम्हें खोना
लगता है ज्यों
टूट जाना टाँकों का
सीवन पर,,,
मैं : गँवा कर तुम्हें
लगता है ज्यों
सजा रहा हूँ ज़िंदगी
टाँक कर
एक नए मक़सद को,,,
वो : तुम्हें खोना
जैसे हो चीख
किसी ठुकराए हुए बच्चे की
ढूँढ रहा हो ज्यों
कुछ अनजाना अनसमझा,,,
मैं : गँवाना तुम्हें लगता है
जैसे दे रही हो सदा
मंज़िले मक़सूद
बुलाने को जानिब खुद के,,,
तुम : तुम्हें खोना
लगता है जैसे मेरी उँगलियों में
हो रही हो
नींव चूर चूर,,,
मैं : तुम्हें गँवाना
महसूस करा रहा है मुझे,
बनाना है मुझे फिर से
ख़ुद को,,,
वो : खो देना तुम्हें
कर रहा है ज़ाहिर रोष
मेरे अपने होने के मर्म से,,,
मैं : गँवा कर तुम्हें
हो गया है बामक़सद
मेरा हर काम और अमल
अमन चैनो सुकूँ के साथ,,,
वो : खोकर तुम्हें
आ रहा है मेरे दिलो ज़ेहन में
तोड़ डालूँ हर उस चीज़ को
जिसे समझा था पाक मैं ने,,,
मैं : तुम्हें गँवाने से
समझ पाया मैं
कि कैसे होती है परस्तिश
हर मुक़द्दस की
ज़िंदगी में,,,
वो : तुम्हें खोना
ऐसा लगता है
जैसे हो आया है क़हत कोई
और बेहाल है हर कोई
भूख से,,,
मैं : तुम्हें गँवाना
जैसे
बोया था एक बीज मैं ने
उपजाने को फसल
पूरे आलम की ख़ातिर,,,
वो : तुम्हें खो कर
लगता है जैसे
हो गयी हो एक जंग
मानो यह ज़िंदगी,,,
मैं : तुम्हें गँवा देना
बना रहा है मुझको
एक नया मुजाहिद
जीतने को जंगे जिंदगानी,,,
वो : खो देना तुम को
है मेरी मौत जैसा
न लौट के आने के लिए,,,
मैं : गँवा देने ने तुम को
खोल दिए हैं नए दरवाज़े
मेरी ज़िंदगी में
लगता है मुझे हो गयी है ज़िंदगी
और ज़्यादा मानी खेज़,,,
(क़हत=दुर्भिक्ष, मुजाहिद=योद्धा, आलम/कायनात=ब्रह्मांड, मुकद्दस=पवित्र, मानी खेज़=सार्थक, परश्तिस =पूजा, मंज़िले मक़सूद=अंतिम उदेश्य/गंतव्य)
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