Monday, 22 July 2019

विदाई,,,,,


विदाई,,,,
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कहाँ हो पाता है
विदा पूरी तरह कोई
सत्य है या भ्रम
एक असमंजस ही तो है
विदाई,,,

शाश्वत सत्य  है
मिलना,बिछुड़ना फिर मिलना
जन्म जन्मांतर के सम्बन्धों का
अपरिहार्य प्रतीक है
विदाई,,,

जन्म के दौरान
और
मृत्यु से ठीक पूर्व
जुड़ाव का होकर सह प्रतिपक्ष
हो जाती है घटित
विदाई,,,

होने लगे प्रेम जहां
परिभाषित और विभाजित
दोनों दिखते किनारों से परे
होती है एक अदेखा किनारा
विदाई,,,

सबब है यह भक्ति का
खोले हो कर तिरोहित
द्वार परम मुक्ति का
मिलन का ही रूप है एक
विदाई,,,

Tuesday, 16 July 2019

ये दर्द मेरा लज़्ज़ते अरमान हो गया,,,,,



ये दर्द मेरा लज़्ज़ते अरमान हो गया,,,,
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अपना ही अक्स आईने में अनजान हो गया
खुद के ही घर में यारों मैं मेहमान हो गया,,,

ज़ख़्म दे रहा है राहत ख़ुशनुमा यादों की
ये दर्द मेरा लज्जते अरमान हो गया,,,

कहते थे मेरे अज़ीज़, जुदा यक शख़्स हूँ मैं
मेरा आम होना ही आज मेरी पहचान हो गया,,,

सीख लिया है सलीक़ा जज़्बात छुपा लेने का
दिले सदचाक मेरा दिले शादमान हो गया,,,

कहते रहे ग़ज़ल ख़ुद ही की वुसअत में
सफ़े रंजो ख़ुशी के जुड़े ,दीवान हो गया,,,,

(लज्जत=सुखद अनुभव, दिले सदचाक=भग्न हृदय, दिले शादमान=प्रसन्न हृदय,वुसअत=विस्तार, सफ़ा=पृष्ठ/पन्ना, रंज=दुःख, दीवान=ग़ज़लों का संग्रह)

कोंपल दर्द की,,,,,,: विजया


कोंपल दर्द की....
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नहीं भरता है वक़्त
घावों को,
ढाँप देता है बस उन्हें
एक लम्बी सी चादर से
देने को भुलावा
चोट के बिसर जाने का,
हो जाता है भ्रम
उस पीड़ा को भूल जाने का
गाड़ दिया गया होता है जिसे
किसी समझौते के तहत
बहुत गहरे में,
देख लो ना मगर
फूट आयी है आज
यह कोंपल दर्द की....

Monday, 1 July 2019

ना जैय्यो कोई क़रीब : विजया



ना जईय्यो कोई क़रीब !
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चमचमाती नज़रें
तवस्सुम ललचाती सी
कहकहे हैं शैतानी
मनसूबे बेहद घिनौने
एक निगाह खोटी
छीन ले जो बहोत कुछ...

लबों पर अहद
ज़ेहन में है जद्दोजहद
हरदम अना है हावी
बन कर
शख़्सियत की चाबी
बेपरवाह है अंजाम से
गँवा दे जो सब कुछ...

हल्का ए नूर नक़ली
काले अंधेरे असली
मुस्कान के दिखावों में
छुपे हैं गुनाह कितने
इश्क़ कहूँ के फ़रेब
ना जईय्यो कोई क़रीब  !

(अना=अहम/ego, अहद=वादे/promises, हल्का ए नूर=चमक का गोल चक्कर/halo)

हर मौसम बाग़ में हमारे : विजया


हर मौसम बाग़ में हमारे...
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उग आए हैं बीज
जो निहाँ थे राज होकर
गहराई में तुम्हारी,
है लबों पर मुस्कान तुम्हारे
उदासी हैं मगर मर्कज़े चश्म में,
झाँकते हो तुम
जब जब मेरे आइना ए दिल में
मुड़ जाते हो बरबस
पाकर कोई अजनबी अपने ही अक्स में...

जानती हूँ मैं हाल
तुम्हारे हर पत्ते और  बूटे का
हर जुड़े और टूटे का,
सहलाते हुए हर चोट
समझाते हुए हर खोट
मिला कर क़दम से क़दम
खोजती रहती हूँ दिन रात
उन गुमशुदा गुलों को
जो खिला करते थे हर मौसम
हमारे बाग ए ज़िंदगानी में...

(निहाँ=छुपा हुआ, मर्कज़=केंद्र,चश्म=आंख)