नदिया,,,,,
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बहे जा रही है
उछलती कूदती
गिरती सम्भलती
चपल नदिया
अपने सागर की ओरi
गुजरती हुई
चट्टानों,पत्थरों
शिलाखंडों, कंकड़ों
बालू और कीचड़ के ऊपर से,
गाती हुई
मधुर रागिनीयाँ
कभी होले से फुसफुसा कर
तो कभी गरज भरे स्वर में,,,,
उतरता जाता है
उसका दिव्य संगीत
मनोमस्तिष्क में
शान्त करते हुए
असमंजस भरे
अस्तव्यस्त सोचों को
जो आ जा रहे होते है
अंतर में,
नहीं होता है अंत
सरि नाद का
किनारों पर
उसकी मंज़िल तो है
समा जाना उस दिल में
जहाँ होता है
प्यार ही प्यार बेशुमार
उसके लिये,,,,,
हो जाते हैं शिथिल
समस्त तनाव
करते हुए तुष्ट
अंतरात्मा को,
भर जाता है सुकून
अंतस की गहराइयों में
देखता है जलधि जब
कल कल कल्लोल करते
सारंग नीर को
सरकते हुए
साँसे लेते हुए
अर्पित होते हुए,,,,
नहीं रहती यह चंचला
कभी भी ठहरी हुई
बहती रहती है
निशि-दिन सबल
हर गर्त, छिद्र और मार्ग होकर
नए प्रवाह के संग
करके परिपूर्ण आनन्द से
आत्मा को
और कर देती है
दीप्त सागर सत्व को,,,,