Sunday, 31 May 2015

अंगीकार......: विजया

अंगीकार......
+ + +
स्वीकारा होगा
तुम को
किसी ने 
तथाकथित यथावत
मैं ने तो किया है
अंगीकार तुम को,
पृथक रख कर
देखते रहते हैं वो
तुझ को
करते हुए
महिमामंडित
स्वयं को
कहते हुए बारम्बार
"देखो, हम ने
इसके ऋण और धन को
जानते हुए भी
अपना लिया है इसको,"
तुम्हारे ऋण (Minus)
तुम्हारे धन (Plus)
हैं महत्वपूर्ण
तुम से अधिक इनको,
होते हैं
मानवीय सम्बन्ध
बुद्धि विलास के
साधन इनको
विश्लेषण
संश्लेषण में
हो जाता है जीवन व्यतीत
और लिखे जाते हैं
असंख्य पृष्ठ
अपने ही आग्रहों को
सिद्ध करने
गद्य में
पद्य में....
बन गए हो तुम
अभिन्न अंग मेरे
और
हो गया है विलय
मेरा तुझ में
तुम्हारा मुझ में
बिना किसी खंडन मंडन के
बिना किसी भाषा परिभाषा के
बिना किसी माप परिमाण के
विज्ञानं की भाषा में
हम हैं एक मिश्रण
यौगिक नहीं,
तेरा तत्व है तू
और मेरा मैं
सहज है
मेरा "मैं' होना
और तुम्हारा 'तुम' होना
सहअस्तित्व के शील में
मिटजाना तो नहीं होता
आवश्यक,
प्रकृति में भी
जीते हैं सब सत्व एक साथ
संग अपने अपने गुणधर्मों के
जुड़ कर श्वास-निश्वास की प्रक्रिया से
नहीं है बाधक पृथकत्व
एकत्व घटित होने में
सनिकेत और अनिकेत
अवस्थाएं हैं मन की
अधीन सापेक्ष व्यवस्थाओं के,
समाहित प्रेम में
एक वास्तविकता है
यौन की
शब्दों के परे
एक भाषा है
मौन की
व्यर्थ है मीमांसा और समीक्षा
कब कहाँ और कौन की,
आओ सुन तो लें
वह शांत ध्वनि
जो गूंज सकती है
मन के सन्नाटों में भी.. smile emoticon

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