Wednesday, 30 July 2014

आओं मनाएं आध्यात्म का दीपोत्सव...

आओं मनाएं आध्यात्म का दीपोत्सव...


आओं मनाएं आध्यात्म का दीपोत्सव...

# # #
(१)
हुआ था
प्राप्त
आज के दिन
गणधर गौतम को
केवल ज्ञान,
हुआ था
आज ही
महावीर का
निर्वाण,
महोत्सव है आज
मुक्ति का,
गौतम हुए थे
मुक्त
"मैं" भाव से,
महावीर हुए थे
मुक्त
जीवैष्णा से,
आओ मनाएं
जला कर दीप
उत्सव आज
ज्ञान का
आलोक का
मुक्ति का....
(२)

सन्देश था
वीर का
गौतम को-
हम सब को,
छोड़ दो
सब आश्रय
होतें है जो
अन्यों से,
कर लो
अकेला
स्वयं को
वही है स्वंत्रता..
तभी है
विसर्जन
सब ग्रंथियों का...

(३)
स्वतंत्र है
जीव प्रत्येक,
है स्वामी वह
स्वयं
जन्म का
मरण का,
है वह
विधाता
स्वयं का,
नियन्ता निज का..
करता है
बंधन कर्मों के
स्वयं,
भोगता है
फल उनके
स्वयं,
सुख और
दुःख
होते नहीं
घटित
किसी अन्य के
कारण से,
कोई नहीं
बना सकता
दास किसीको,
हम बनते हैं
दास
खो कर
पहचान स्वयं की,
रहना
अनुकूल
या प्रतिकूल
होता है
निर्णय हमारा,
देते हैं हम
जन्म स्वयं को
और
दिए जाते हैं इसे
निरंतर
लिए बोझ
कर्मों का,
करके प्रमाद
नहीं करते
हैं क्षय
इन कर्मों का,
करते रहते हैं
अकृत्य
मनसा
वायसा
कायसा,
उपरांत
तैर जाने के भी
सम्पूर्ण
भवसागर,
अटक जाते हैं
तट पर
बंध कर
बंधनों से,
चाहते रहते हैं
हम
पहचान अपनी
भीड़ में,
भयभीत हैं
हम
अकेलेपन को
स्वीकारने में,
ऐसे में :
कैसे हों
ज्ञान मय हम ?
कैसे हों
पूर्णत: निर्मल निर्दोष..?
कैसे टूटे
बंधन हमारे ?
कैसे हो
विसर्जन
हमारी समस्त
ग्रंथियों का ....?
करें मनन
इस सन्देश पर :
जिनवाणी का है
संविधान
अपने से
अपना कल्याण !

मेरी पसंद का एक संकल्प...# # #
एक जैन प्रार्थना है(मेरी रची नहीं है) ...जो इसी के क्रम में है :

ॐ अर्हम
सुगुरु शरणम
विघ्न हरणम
मिटे मरणं...

सहज हो मन
जगे चेतन
करें दर्शन
स्वयं के हम...

बने अर्हम
बने अर्हम
बने अर्हम...

(अर्हम बनने का अर्थ है शुद्ध स्वयमत्व को जागृत कर..भग्वत्व की स्थिति में हो जाना, अध्यात्म कि उंचाईयों पर पहुँच जाना, मौक्ष के लक्ष्य को पा लेना)

होले से चले आता है कौन..

होले से चले आता है कौन..

# # # # #
ख्वाबों में होले से चले आता है कौन,
बेक़रार दिल को यूँ समझाता है कौन.

उदास है ये ज़मीं ग़मज़दा आस्मां,
बिना बदरा बिजुरी चमकाता है कौन.

तआज्जुब करूँ या इजहारे शुक्रिया,
शदफ के दिल में गौहर उगाता है कौन.

आँखें कहती और चुप रहती है जुबां
अबोले असआर मीठे सुनाता है कौन.

कहने को वो वो है और मैं होता हूँ मैं,
साँसे मुझ में उसकी बसाता है कौन.

सुकूं देता हैं एहसास महज़ तेरे होने का,
खनक तेरी ह़र लम्हे सुना जाता है कौन.

ह़र धुन में तेरे नगमे गाये जाता हूँ मैं,
सुरों में हर्फ़-ऐ-नाम तेरे सजाता है कौन.

खोकर तुझको क्या पाउंगी :~ ~

खोकर तुझको क्या पाउंगी :~ ~

इस कविता में वर्णित भाव किसी के हैं, जो बहुत वर्षों पूर्व किसीने व्यक्त किये थे, बस मैने सिर्फ शब्द दिये थे, आज अनायास ही किसी पुस्तक में दबी यह तहरीर हाथ लाग गयी, आप से शेयर कर रहा हूँ।

# # #
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले,
यौवन मद में
चूर बहुत है
आज भी मुझ को
चाहनेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले,

देह कमल का
खिलना भी क्या,
दोराहों पर
मिलना भी क्या,
चार कदम का
साथ निबाह कर
बीच राह में तजने वाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

उसर भूमि को
करके सिंचित
प्रेमांकुर
फूटाये तुम ने,
सूने घर की
दीवारों पर
भव्य चित्र
सजाये तुम ने,
आज चले मुंह मोड
अचानक
शब्दों से बहलानेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

तन नश्वर और
क्षण भंगुर है,
आत्मा मेरी
अजर अमर है,
किस को छोड़ा
किस को पाया,
नित नूतन
स्वांग रचानेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

पूनम का यह चाँद देखो

पूनम का यह चाँद देखो

# # # # # # 
पूनम का
यह चाँद 
देखो
ले कर आया 
दिव्य चांदनी,
उल्लास का 
प्रसार ऐसा 
कंचन फीका 
मलिन कामिनी...

दिवस मानो 
थम गया हो 
विस्मृत कर 
गति को ही अपनी   ,
विकल चकवी 
भूल गयी ज्यूँ  
आज अपनी 
सतत रागिनी...

स्पर्श कुछ ऐसा हुआ 
है पुलकित 
तन मन स्पन्दनी 
ध्यान ज्यूँ 
हुआ घटित हो.
तिरोहित है 
अंतर सौदामनी ...

बुझा दें हम 
दीप क्यों ना 
सुला कर लौ को 
ए सजनी, 
शीतल इंदु संग 
नहीं रहेगी 
शलभ की वो  
आकुल करनी..

मुग्ध हृदय 
स्वागत पवन का 
खोल कर 
रुद्ध वातायनी 
स्वर्ग धरा पर 
आज उतरा,
है कृपालु 
जगत जननी...

सजगता छोटी..

सजगता छोटी..

# # # #
लबा लब
भरा था 
एक सर, 
उछलती 
कूदती
मण्डूकी 
चंचल, 
चली आई  
बाहर
बेपरवाह 
हो कर
ध्यानी  बगुला 
नज़र 
एकटक,
चोंच में 
लपक कर 
गया था 
गटक,  
अति उच्छ्रंखलता
होती है 
खोटी,
बचाती
विनाश से  
सजगता 
छोटी..

थोथा थूक बिलौना क्या ?

थोथा थूक बिलौना क्या ?

# # # #
दीठ से दोष 
छुपाना क्या ?
नमक की रोटी 
बनाना क्या ?

थोथा थूक
बिलोना क्या ?
भरी लुटिया 
डुबोना क्या ?

औरों के अवगुण
गिनाना क्या ?
लिखे अक्षर
मिटाना क्या ?

बीज बैर के
बोना क्या ?
मैल पराया
धोना क्या ?

दिन में दीया
जलाना क्या ?
बनती बात
बिगाड़ना क्या ?

'मैं का मलबा
ढोना क्या ?
मानव जीवन
खोना क्या ?

जगने की बेला
सोना क्या ?
सपना टूटा
रोना क्या ?

सूखे वस्त्र
निचोड़ना क्या ?
फिर से उन्हें
भिगोना क्या ?

(राजस्थानी बात चीत से प्रेरित)

रख कर बंसरी लबों पर .....

रख कर बंसरी लबों पर .....

ज़द्दो जेहद
जिंदगी की
दे देती है थकन
रख कर
बंसरी
लबों पर अपने
बन जाता है कोई
किशुन कन्हाई..

बहने लगते हैं
नग्मात के धारे,
चहक उठते हैं
जिस्म औ' ज़ेहन
थके हारे,
बहने लगती है
फिर से जिंदगानी
साथ लिए
हमसफ़र किनारे....

बजने लगता है
रूह में
राग अनहद का.
लगता है जैसे
फिजा अमन की है छाई..

ज़िंदगी मौसिकी का
सज़ीना है
कायनात भी तो
आगाज़ और
अंजाम का ही
करीना है
मांझी हों हम
मुक्कमल जीना
बहर -ए-हयात का
सफीना है

जिंदगी नाम चलने का
बहना है
उसकी फितरत
रुका जो भी
इस सफर में
उसको है मौत आई...

बावरे !

बावरे !

# # #
धोखे है 
तेरी नज़रों के 
क्षितिज के 
इतने छोर,
लौट चला आ
राही पगले
अब तो 
खुद की ओर,

क्या तारेंगे 
सूरज चंदा 
बंधे काल के हाथ,
तेरे दीपक से 
ही होना
तेरा सकल प्रभात,
माने गैरों को 
क्यूँ अपना 
तेरे मन का  
चोर...

अंतर 
अनहद नाद 
समाया
वहीँ तो 
निज आलय को 
पाया 
बाहर में 
कोलाहल भीषण 
कैसा है 
यह शोर...

मिलन 
स्वयं से 
यदि करना है,
तन्द्रा से 
तुझको  
जगना है,
कर ऐसा 
कुछ जतन
बावरे !
जागृत हो 
हर पोर ...

सम्पूर्ण विलय .....

सम्पूर्ण विलय .....

# # #
मिलना होता है 
नदिया को
अपने प्रीतम से
समा के उसी में 
बन जाती है 
'वो' ही, 
होता है 
प्रवाह उसका 
उसी दिशा में 
जहाँ होता है 
स्थिर सा 
व्याकुल प्रेमी 
उसका, 
किन्तु आकर 
समीप उसके 
बाँट लेती है 
स्वयं को 
कई धाराओं में, 
लेना चाहती हो स्यात 
थाह उस अथाह की 
पूर्व सम्पूर्ण विलय के..

अनायास...

अनायास...

# # #
आस
और
प्यास
हुई थी
घटित
अनायास,
गिर गए थे
आवरण
जीते थे
एहसास,
तुम और मैं
बन गए थे
हम,
नीचे थी
जमीं
ऊपर
आकाश !

रणछोड़....

रणछोड़....

# # #
नग्न खड़ी
युवा समस्याएं
अब नहीं
जगा रही कौतुहल
मेरे परिपक्व हुए
चिर युवा मानस में,
जानने लगा हूँ
अब
आमने सामने खड़ी
जीवन की विसंगतियों का सच,
ले ली है जगह
उत्तेजना
चुनौतियों
और
संघर्षप्रियता की,
शांति
सहनशीलता
और
मौन ने,
कायर नहीं
अजेय योद्धा हूँ
आज भी,
बस बन गया हूँ
स्वयं सचेत
रणछोड़
श्रीकृष्ण की
तरह......

भ्रम.....

भ्रम.....

# # #
ओ विजेता
जीवन समर के,
एक पराजित योद्धा है तू,
पाल लिए हैं
भ्रम जिसने
अचूक निशानेबाजी के,
उदारमना वीरता के,
विलक्षण मेधा के,
प्रभावी व्यक्तित्व के,
कितना मिथ्या है
तेरा अस्तित्व बोध,
सुन जरा !
सिसक रही है
इन शोर भरे
जयकारों के बीच
तेरी अपनी ही
चेतना
और
सम्वेदना,
रख दी है तुम ने
जिनके उदगम स्रोत पर
भारी भरकम
चट्टानें
अपने ही अहम् की....

सर्वोपरि उपलब्द्धि ...

सर्वोपरि उपलब्द्धि ...


# # # #
कहाँ गए 
वाद्य और संगीत
कहाँ गए 
वो मधुर बोल,
थक सी गयी है 
गीत की पांखें 
मुंदने लगी है 
थकी हारी आँखें,
रूठ से गए हैं 
स्वप्न सुहाने,
घेरने लगे हैं 
कोलाहल के बहाने, 
चल उड़ चल 
ओ वाणी के पक्षी 
करले बसेरा 
मौन के वन में,
होंगे तेरे संगी,
मौन की ध्वनि लिए 
लहरहीन सरिता, 
धरती को स्पर्श करता 
निशब्द सवेरा, 
शिशु तारे की अंगुली थामे 
चाँद को ढूंढती 
यह गूंगी सी 
सुरमई संध्या
और 
इन सब के बीच 
वो अनकहा सत्य 
जो है तुम्हारी 
सर्वोपरि उपलब्द्धि ...........

हाफिज खुदा तुम्हारा ....

हाफिज खुदा तुम्हारा ....

# # # #
रह रह कर
चली आती है
तेरी कोई सदा ,
याद आ जाती
यकायक
तेरी ह़र इक अदा ,
हां ! यह कैसा
बुलावा है
तेरा है कि वक़्त का
फिर कोई
भुलावा है...

चला आया हूँ
बहोत दूर
अब
आवाज़ ना दे,
दुनिया को
अपने माजी के
भूले बिसरे
राज़ ना दे,
ताश के पत्तों सी
बेगानी ये
महफ़िल है
बेआवाज़ नगमों को
फिर से
कोई साज़ ना दे...

डगमगाती कश्ती को
कब मिल सका
किनारा ,
बनना होता है
आखिर में
खुद ही
खुद का सहारा,
गुज़रा हुआ जमाना
आता नहीं
दोबारा,
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा...

लिखता रहूँ.....

लिखता रहूँ.....

# # #
टांग दिये
झरोखों पर
मोटे परदे,
फुहारें बारिश की
मगर
दिये जा रही
दस्तक
अब भी...

ना देख पाए
कोई रात के
अँधेरे में ,
उभर आएगी
सिलवटें ज़िन्दगी की
होगी रोशनी
थोड़ी सी
जब भी...

चला जाऊंगा
एक दिन
मैं यकायक,
महसूस
शिद्दत से
दीवारों को
मिरा साथ
तब भी...

बच भी जाऊँ
एक मदहोशी से
ये किस्मत मेरी,
बिखरे पड़े हैं
मगर
दुनियां में कितने
तर्गीब
अब भी...

छिन भी जाए
कागज कलम
ओ-रोशनाई मुझ से,
लिखता रहूँ
आसमाँ पर
तेरा नाम
तब भी...

तर्गीब=प्रलोभन

बस बीज ही है.....

बस बीज ही है.....

# # #
बीज बोया
फसल
लहलहायी,
क्रम की
परिणति
पत्र,पुष्प,फल नहीं
बस बीज ही है.....

शाख, कोंपल
फूल पत्ते
आवरण
बस आवरण ,
जो समाया
सब में प्रतिपल
बीज है
बस बीज ही है...

युग संवत्सर
दिवस घड़ी क्षण
बस समय के
माप ही हैं,
कल की कोई
नहीं है हस्ती,
आज है
बस आज ही है...

बूँद बनी
बादल कभी तो,
कभी समंदर
ओंस भी है,
हिम बनी
नदिया बनी वो,
बूँद है
बस बूँद ही है..

चलती राहें
या चरण चलते
कहने को
मंजिल को छूते,
है सफ़र अनवरत
यह तो ,
प्रगति भी
बस गति ही है...

बोये अर्थ -उगाए अक्षर......

बोये अर्थ -उगाए अक्षर......

# # # # #
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ,
अनुवादों के
जंगल में कब
मौलिकता
ठहरी है....

नचा रही
जग मंच पे
मुझ को
राग द्वेष की
डोर,
निज की मैं
सुन नहीं पाता
असमंजस है
घोर.....

झर झर आंसू
झरे नयन से
अनुभूति
मूक बधिरी है ,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ....

भावुकता के
क्षणिक असर को
माना था
संन्यास,
अनजाने में
मूल सत्व का
किया मै ने
परिहास..

मिथ्या भ्रम
अधिकोष के बाहर
अहम् मेरा
प्रहरी है,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है...

सूरज निकलता है क्या ?

सूरज निकलता है क्या ?

# # # # #
हो कितनी ही बेताब
भीड़ सितारों की,
वक़्त से पहले कभी
सूरज
निकलता है क्या ?

अच्छा होगा
काट ले तू
हथेलियाँ अपनी,
हो कर हताश उनको यूँ
मलता है क्या ?

थमी थमी है
हवाएं भी कुछ,
देख लो माहौल में
कोई तूफान कहीं
पलता है क्या ?

हो गया कैसे
बेफिक्र तू
सरे राह चलते
अनहोना
ऐसे सफ़र में
टलता है क्या ?

चल बाँट लेते हैं
गम औरों के
अपने ही
दुखों में यूँ
गलता है क्या ?

जले दिल से
निकली है
फिर भड़ास कोई,
ऐसी चिंगारियों से
कभी पर्वत
जलता है क्या ?

कैसे ......?

कैसे ......?

# # #
ह़र शै लगती
अजीब जैसे,
आ गया ऐ दिल
ये मक़ाम कैसे ?

जुबां चुप है
अल्फाज़ बोलते हैं
मुंह में फिर कसैला
जायका कैसे ?

खुशबू भरा है
गुलशन मेरा,
फूल कहीं दूर फिर
खिला कैसे ?

बहता है दरिया
मेरे ही घर से,
मेरा मन फिर भी
प्यासा कैसे ?

एक है या के
दो हैं हम,
अजनबी साया
दरमियां कैसे ?

जल रही शम्माएं
फानूस हैं रोशन
फिर भी मकाँ में मेरे
अँधेरा कैसे ?

कोई और...

कोई और...

# # # #
भाव और बोल
गीतों के
मेरे ही थे
गा रहा था
कोई और...

बैठ कर
सुर-पंख पर
उड़ रहे थे स्वर
वेदना के,
आंसू मेरे ही थे
बहा रहा था
कोई और...

मैं फूल चमन का
खुशबू मेरी ही थी,
फिजाओं में
बाँट रहा था
कोई और..

रख दी थी नाव
नदिया पर
मै ने ही,
पतवार
चला रहा था
कोई और...

बिन देखे
बिन सुने
कर रहा था
साज श्रंगार
स्वप्न मेरे ही थे
देख रहा था
कोई और....

सावन...

सावन...

# # #
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

बदरा उमड़े
हैं नयनों में,
रिमझिम रिमझिम
बरखा,
धुल गए हैं
मैल अंतस के
दिल ने दिल को
निरखा,
आगोश में लेकर
सूरज को
की है बादल ने
छावन,
विरह मिलन
दोनों के,
एहसास लिये है
सावन...

झर झर झरना
है नयनन में,
मन है
चंचल हिरना,
बांध रहा
सावन हरियाला
शांत
रवि की किरना,
प्रेम का मौसम
ऐसा मौसम
क्या ठंडक क्या
तापन,
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

धरती के
मुखड़े मलिन को
सावन जल ने
धोया,
वृथा हुए
प्रपंच जगत के
ना पाया
ना खोया,
उजला सा
अस्तित्व सामने
सब कुछ है
मनभावन,
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

मूल्यांकन .....

मूल्यांकन .....

########
है कैसी विडम्बना !
हो रहा है
राग के सन्दर्भ में
विराग का
मूल्यांकन,
राजपुत्र थे
बुद्ध और महावीर
अकूत दौलत थी
बहुमूल्य वस्त्र
अनगिनत आभूषण
राजमहल
हाथी घोड़े,
हम गिनाते नहीं थकते
वह वैभव और सम्पदा
जो उन्होंने छोड़े ,
परोसते रहेंगे
कब तक
भोग की चाशनी में
पगा कर
त्याग की बातें,
बन्द करो
ऐ अनुयायियों
यह प्रलाप,
कहीं दोनों की
अनुभूत देशनाओं को
अनजान में
अबाध भोग की
प्रतिक्रिया तो नहीं
बना रहे है आप,
नहीं था त्याग उनका
भोग से उत्पन हुई
विरक्ति कोई,
परे गए थे वे
भौतिक ऐन्द्रिक सुखों से,
हो कर चेतन,
है सत्य यही कि
संसारिकता की नीव पर ही
लहराता है
धर्म का केतन....

अब क्या बात करूँ....

अब क्या बात करूँ....

# # # #
किस प्याले की
अब क्या बात करूँ....

खूब पिलाया
जब तक मन था
अधरों पे खिला
शब्दों का चमन था,
सच कह उठी
जिस दिन यह जुबाँ थी
उस दिन की
अब क्या बात करूँ ....

छलका था मैं
मय बन कर
मदमस्त किया
हर शै बन कर
जीवन में
कितनी रंगीनी थी
उस मदहोशी की
अब क्या बात करूँ ......


टूटे थे ख़्वाब
देखा जग कर
ज्यूँ फूल गिरे
पत्थर बन कर
पलकों से गिरा
ठुकराया गया था
उस ठोकर की
अब क्या बात करूँ...

हाला से भरा था
वो प्याला
और जख्म ढके था
वह छाला
फूट पड़ा और
बढ़ गयी जलन थी
उस टीस की
अब क्या बात करूँ...

नयनों का था
वो प्याला,
छलक पड़ा था
मतवाला,
था दिल से
जो खिच कर आया,
उस आब की
अब क्या बात करूँ...

मैं दर्पण ...

मैं दर्पण ...

# # # #
मैं दर्पण
सहज समर्पण,
अति कृपण
ना अर्पण ना तर्पण,
आवरण
वातावरण
अवधारणा
अवतरण
सब तो हैं तुम्हारे....

मैं दर्पण
नितान्त निरपराध
प्रस्तुत जस का टस
ना कोई साध,
बिम्ब
प्रतिबिम्ब
दर्शन
चिंतन
सब तो हैं तुम्हारे...

मैं दर्पण
कलुष पीठ
उजले नयन
स्पष्ट दीठ,
कुंठित उसूल
जमी धूल
विश्लेषण
संश्लेषण
सब तो हैं तुम्हारे...

आनी जानी...

आनी जानी...

# # # #
होते हैं कुछ पंछी ऐसे,
नहीं होता जिनका कोई बसेरा
होती है कुछ रातें ऐसी
नहीं होता जिनका सुखद सवेरा,,,,,

नयनों के परिचय का क्या है,
दोहराये निश्चय का क्या है,
कहाँ सत्य निर्वचन हमारा ?
बलिदानों की पृष्ठभूमि में
छुपा हुआ जो तेरा मेरा,,,,,,

योग सुहाने हो सकते थे
कैकयी दशरथ को ना छलती,
आ सकते थे कुछ पल ऐसे
सीता अग्निस्नान ना करती,
होना था जो, हो ही गया था
समझो था बस समय का फेरा,,,,,,,

खाक हुई सोने की लंका,
देखा श्रद्धा को बनते शंका
अस्तित्व भ्रम ने किस कारण यूँ
स्वयं पुरुषोत्तम को था जो घेरा ?

अनहोनी होनी हो जाती
बनती प्रस्तर फूल सी छाती,
घटनाएँ तो आनी जानी
जीवन यह दो दिन का डेरा,,,,,,

किस्सा भलमनसाहत का

किस्सा भलमनसाहत का

किस्सा भलमनसाहत का उर्फ़ दास्ताने मच्छर और खटमल..
# # # # # # # # #

# भलमनसाहत कभी कभी बेवकूफी भी हो जाती है.

# अपने तथाकथित आदर्शों और उसूलों के चलते कभी कभी हम इतनी थ्योरिटिकल अप्रोच अपना लेते हैं कि वह जानलेवा हो जाती है.

# लोग हमें 'फॉर ग्रांटेड' लेने लगते हैं, और हम हैं कि लोगों की निरर्थक और स्वार्थपूर्ण मांगों को पूरा करने में ही रिश्ता निबाहने के भ्रम को जीये जाते हैं.

# रिश्तों को जीना एक आर्ट भी है तो सांईस भी.

# हम बचे रहें जरूरी है इसके लिए कि स्टीयरिंग का कंट्रोल अपने हाथ में रखें,यथासमय यथोपयुक्त एक्सलेटर और ब्रेक का इस्तेमाल करते रहें तो सफ़र अच्छे से पूरा हो सकता है.

# हम सावचेत हो कर जीने का ज़ज्बा रख सकते हैं, दुर्घटनाएं तो आकस्मिकता है. हाँ जैसा कि हम हाईवेज पर लगे होर्डिंग्स पर पढ़ते हैं--सावधानी हटी दुर्घटना घटी.

# एक किस्सा आ गया ख़याल मे..... आसान कर देगा वह ऊपर लिखी बातों को.

# एक था बादशाह .सोया करता था अपने रेशमी पर्दों वाले, मखमली गद्दों वाले ख्वाबगाह में.

# एक था मच्छर. लगा था वहीँ एक कोने में रहने. सो जाता था जब बादशाह गहरी नींद, तो निकलता था वह भी बाहिर...और चला जाता था अपनी जगह फिर से चूस कर शाही खून अहिस्ता से.

# गुजर रहे थे मच्छर के दिन यूँ खूब मजे मज़े में.

# एक दिन बादशाह के ख्वाबगाह में आ गया था एक खटमल. कहा था मच्छर ने, "अरे खटमल इस ख्वाबगाह पर तो है सिर्फ मेरा ही अख्तियार, अरे चला जा यहाँ से, होगा यही तेरे लिए बेहतर अरे ओ बेमुरव्वत खाकसार."

# खटमल खिलाड़ी , बोला बहुत मोहब्बत से, घोल कर मीठी मीठी मिसरी जुबाँ पर, "मच्छर दोस्त ! घर आये मेहमान का नहीं करते ना अपमान, मैं तो आया यहाँ एक छोटे से टेम्परेरी मकसद के साथ, समझ लो है कोई दो तीन दिन की बात, चला जाऊंगा मैं, मेरे दोस्त उसके तुरत बाद."

# मच्छर ने रखी जिज्ञासा, " रे खटमल, सब ठीक..मगर मकसद तो बता अपना."

# बोला खटमल, " दोस्त मच्छर ! खूब पिया खून तरह तरह के इंसानों और जानवरों का..मगर नहीं मिला पीने को लहू किसी राजे महाराजे बादशाह का. बस हो जाये मेहरबानी तेरी और ले लूं यह एक्सपीरियंस भी दो एक दिन. चल दूंगा फिर मेरे अज़ीज़ मैं भी राह अपनी.दे दो ना मुझे इज़ाज़त, बात है बस दो एक दिन की ."

# लगी थी मच्छर को लोजिकल बातें खटमल की.. इमोशनल भी, इगो बूस्टिंग भी. सोचा था उस ने अपने उसूलों के फ्रेमवर्क के तहत और हो गया था अग्री वह.

# बस रख दी थी महज शर्त एक जनाब मच्छर खान 'भिनभीने' ने..."रे खटमल तुम करोगे अपना काम जब सोया होगा बादशाह गहरी नींद में."

# बोला शरीफजादा खटमल हुसैन, भाई मच्छर मैं तो अपने काम को दूंगा तभी अंजाम, जब पी चुके होंगे तुम भी खून बादशाह का. अरे तुम कहते हो सरासर वाजिब, वैसे भी पहल तुम्हारी और सिर आँखों पर पालन तेरी इस शर्त का.

# रात हुई, चमके थे आसमान में सितारे..चली थी हवा ठंडी ठंडी और सो गया था बादशाह सलामत.

# खटमल तो खटमल, नहीं रख सका था काबू या यूँ कहें कि मच्छर साहब ' टेकेन फॉर ग्रांटेड 'हो गए उसके लिए . लग गया था ज़ालिम बादशाह के बदन पर.और लगा था चूसने खून उसका. रोकता रहा मच्छर... मगर मिल गया था खटमल को एक नया लुत्फ..जारी रखा था उसने काम अपना करके मच्छर के नालों को अनसुना.

# हुई थी चुभन बादशाह को. चिल्ला उठा था आलमगीर......और सुन कर उसकी आवाज़ दौड़े आये थे कारिंदे.

# छुप गया था खटमल. नज़र पड़ी थी सब की बस मच्छर पर.

# मारा गया मच्छर और खिसक गया था होले से खटमल......

मौन स्वर..

मौन स्वर..

# # #
प्रेम की अगन
मगन ह्रदय में
ह़र पल जो दहकेगी...

राख से ढकी हुई
चिंगारी,
तेज़ हवा की है
बलिहारी,
नभ पर चढ़कर
इठलाऊं मैं
चाह यही रखती
मतवारी,
बुलंद इरादे रहे
अगर तो
निश्चित वह लहकेगी...

आती रहती खिज़ा
बेचारी
हरियाली पर होकर
भारी,
माली जो गर
देखे सींचे
खिलती जाती
हर फुलवारी
हो मौजूद
वुजूद बहार का
कोयल तो चहकेगी.....

थक गयी है यह घोर
निराशा
चुस्त दुरुस्त मगर है
आशा,
पी कर अमृत
निज विश्वास का,
रहेगी कायम
उसकी भाषा,
चाहे जुदा हो
डाल फूल से
बगिया तो महकेगी...

आँखें अश्कों से है
भरती
हंसी होठों पर फिर भी
सजती
चाहे कड़के
तड़ित बिछोह की
मिलन वृष्टि तो होती
रहती
सच तो यह कि
मौन स्वरों में
रागिनी तो गह्केगी...

दीजिये और लीजिये : किस्सा मुल्ला नसरुदीन का..

दीजिये और लीजिये : किस्सा मुल्ला नसरुदीन का..

######################
मुल्ला की जमीनी ज़िहनी रसा का कायल हूँ मैं जनाब. माना कि मुल्ला बहुत बातों में सोफेसटीकेशन में थोड़े कमोबेश हैं मगर जब बात जड़ की आती है तो मैने पाया कि मुल्ला अपने मुद्दे में बड़े सावधान है. चूँकि मैं इस मुआमले में सब जानते समझते भी कमज़ोर पड़ता हूँ, मुल्ला बाज़ वक़्त मुझे सप्लीमेंट करता है. मुझे जब किसी को उसकी 'गन्दगी' की हद तक जानना पहचानना होता है, मैं मुल्ला की मदद लेता हूँ. उसको कहता हूँ मैं अमुक इंसान के साथ इंट्रेक्ट करूँगा तू बस 'पर्यवेक्षक' बन कर देख और मुझे अपनी कीमती राय उस शख्स की फ़ित्रत और नीयत पर दे. यह बात और हैं, मुल्ला खाली देखनेवाले बनकर नहीं रह जाते, उनकी जन्मपत्री निकाल ले आते हैं और अपने सटीक विवेचन एवं घटिया विमर्श से मुझे लाभान्वित करते रहते हैं. हाँ उनकी बात में मुझे, "सार सार को गहि रखे थोथा देई उड़ाई" के फ़ॉर्मूला को लागू कर, अपने मतलब के पॉइंट्स निकाल लेता हूँ.

एक दिन मैने मुल्ला से कहा, यार कल किसी दूकानदार ने मुझे पॉँच सौ का एक नकली नोट थमा दिया, क्या करूँ....मेरे पास कोई प्रूफ भी नहीं कि उसने दिया है..यार खामोखाह पॉँच सौ की चपत लग गयी. मुल्ला ने जेब से तीन सौ के नोट निकले और कहा यार पांच सौ की इस चपत को थोड़ा सा हल्का कर दूँ,दे मास्टर वह नामुराद पॉँच सौ वाला हरियल हम को, ऐ फ्रेंड इन नीड इज ऐ फ्रेंड इनडीड..क्या याद करोगे अमां.
मैने कहा यार क्या करोगे इसका,,,बोला अरे कुछ गलत नहीं करूँगा, खातिर जमा कर रख. मैने कहा यह देश के प्रति दुश्मनी है, मुझे नहीं चलाना यह नोट. मुल्ला लगा कहने अरे तू तो पक्का देशभक्त है मासटर कोई पूछे हम से. चल एक दफा दिखा तो सही क्या दिया मेरे इस पढ़े लिखे मुन्ने को किसी ने. मैने नोट उसके हवाले किया, उसने इधर उधर पलटा, देखा, मुंह बनाया ..और सेंटर टेबल पर रख दिया. गप्पें जारी थी...मैं भूल गया.
.दूसरे दिन मेरे यहाँ चाय सुड़कते हुए मुल्ले ने रहस्योद्घाटन किया..अरे वह नोट मैने चारसौ में बुलाकीदास को बेच दिया. बुलाकी दास दानवीर सेठ राम जीवन जी का मुनीम होता था..सेठजी ह़र पूर्णिमा मंदिरों की हुंडियों में 'माल' चढाते थे...जब सब प्रभु का है..तो असली भी प्रभु का, नकली भी..बुलाकीदास भी तो संत महात्माओं की संगत में रहकर फिलोसोफर हो गए थे.

हाँ तो मुल्ला की जमीनी इंटेलिजेंस का एक और वाकया आप से शेयर करता हूँ.

एक दफा हम लोग नदी किनारे टहल रहे थे. देखा बहुत शोर शराबा है..एक शख्स दरिया के पानी में डूबे जा रहा है. लोग कह रहे हैं, "भाईजान अपना हाथ दीजिये ,भाई जान अपना हाथ दीजिये ." मगर वह है कि ऊपर नीचे आ रहा है पानी के मगर हाथ बाहर नहीं कर रहा. मुल्ला ने माजरा देखा, मैने भी हांक लगायी, "जनाब हम आपको बचाना चाहिते हैं अपना हाथ जरा बाहर करिए तो." मकसद को साफ़ करते हुए मेरे यह जुमला भी बेअसर साबित हुआ. भाईजान बस डूबे जा रहे थे, गठरी की तरह पानी में अन्दर बाहर हुए जा रहे थे लेकिन हाथ जैसे उस गठरी में छुपा रखे हों . मुल्ला ने कहा अमां, तुम लोग नहीं जानते कि इसके हाथ कैसे बाहर हो. मुल्ला चिल्लाया, "भाईजान लीजिये ...भाईजान लीजिये ." और बड़े ही अचम्भे की बात उन ज़नाब ने अपने हाथ को बाहर किया..लोगों ने उन्हें पकड़ बाहर खींचा और उनकी जान बच गयी.

मैने मुल्ला से पूछा, मुल्ले यह क्या नायाब तरीका तुम ने सोचा. मुल्ला कहीं, "मासटर माना कि तेरे पास डिग्रियों का अम्बार है, तुमने ना जाने कितनी किताबें पढ़ी है, बहुत चर्चे भी किये हैं बड़े बड़े ज्ञानी लोगों से, मगर तुम पढ़े लिखे लोग जड़ की बात नहीं जानते..अरे मैने देखा जो डूब रहा था वह घूसखोर फ़ूड इन्स्पेक्टर फज़ल मियाँ था...जिसने ज़िन्दगी में हमेशा बटोरा ही है..उसका हाथ इस हांक से ही बाहर होगा लीजिये ..लीजिये ... दीजिये की जुबान वह क्या जाने."

मैने सोचा मुल्ला ने 'लेने' और 'देने' की फ़ित्रत पर कितनी उम्दा मिसाल प्रेक्टिकल में पेश कर दी है.

महक उठा यह चन्दन वन है ..

महक उठा यह चन्दन वन है ..

########

धूप छाँव अशब्द विन्यास से
बनता जीवन का दर्शन है...

जीना नहीं है वांछा केवल
ऋण बंधन भी असर दिखाते,
रेखाओं की सीमाबंदी में
एहसास दिलों के अंकन पाते,
रे मन देख भुजंग आलिंगन में
महक उठा यह चन्दन वन है....

उलझा मन क्या सच पहचाने
नकाब मुखौटों को वह माने,
असली सूरत भूल गए सब
बस किरदार निभाना जाने,
हँसे भीड़ जो कर कर तंज
मैं सोचूं यह शत शत वंदन है...

थोड़ी भी मुश्किल जो आये
होश मेरे क्यों उड़ उड़ जाये,
सुन भिन भिन कीट-पतंगों की
ध्यान मेरा यूँ डिग डिग जाये,
उड़ान अनगिन पंखों की चाहे
नहीं चंचल यह नील गगन है...

भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

# # #
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,,,

बदल जाऊँ तो खो ना जाऊं
कैसे जागूं ,सो ना जाऊँ
जिसे उगाया उसको खोदूं
प्रश्न यही अहम् का,
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

बातें तेरी तेरी होती,
बातें मेरी मेरी होती,
भेद विकट मिटाऊं कैसे
अहम त्वम वयम का,
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं....

अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं....

(कोई पच्चीस से ज्यादा साल पहले लिखी यह आशु रचना पुराने कागजों में मिल गयी, आप से शेयर कर रहा हूँ..भाषा और तकनीक के नज़रिए से कुछ खामियां है लेकिन यह 'raw nazm'' आपके मन भाएगी उम्मीद करता हूँ.)
# # # # # #
जिस्म तेरा है जैसे कोई कागज़ कोरा
तहरीर-ए-मोहब्बत लिखे जा रहा हूँ मैं,,,

पोशीदा तेरे बालों में ज्यों हर्फे मोहब्बत
अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

लिख दी है नज़्म लबों से ज़बीं पर
माथे की लकीरों को पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

ये तेरी बिंदिया आगाज़ मेरे जहान का
चल चल के क्यूँ ऐसे थमे जा रहा हूँ मैं,,,

झांकती हैं मेरी आँखें तेरी आँखों के सागर में
बिन पीये कोई मय लड़खड़ा रहा हूँ मैं,,,

चमके जो रुखसारों पे मोहब्बत का गुलाल
दीवाली के दिन भी होली खेले जा रहा हूँ मैं,,,

मुंदती है मेरी आँखें चमके हीरा तेरे नाक का
न जाने किस राह पे चले जा रहा हूँ मैं,,,

बिन बोले गा रहे हैं लब तेरे रुबायियात
खुशबु-ए-ख़ामोशी सुने जा रहा हूँ मैं,,,

चिबुक तेरा उठा कर झाँका जो मैंने तुझमें
ये क्या हुआ के तुझमें समाये जा रहा हूँ मैं,,,

बस तुम हो.....

बस तुम हो.....

(यह आशु रचना भी पच्चीस साल या कुछ ज्यादा पहले की है, थोड़े संशोधन के साथ आप से शेयर कर रहा हूँ, भाव है बस..शब्द व्यंजन अत्यंत सहज है.)
# # #
झाँकों ना
आँखों में मेरी
जो तस्वीर है,
बस तुम हो....

सूंघो ना
साँसों को मेरी ,
जो खुशबू है ,
बस तुम हो....

गाओ ना
गज़लों को मेरी
जो असआर हैं,
बस तुम हो....

जी लो ना
ज़िन्दगी को मेरी
जो रवानी है ,
बस तुम हो....

छुओ ना
धड़कन को मेरी
जो जुम्बिश है ,
बस तुम हो...

देखों ना
मेरी बाहों में
बंधी है जो ,
बस तुम हो...

करो ना एहसास
कुव्वत का मेरी
जो ताक़त है ,
बस तुम हो ....

सुनो ना
बातों को मेरी
जो अलफ़ाज़ हैं ,
बस तुम हो....

मिलो ना
ख़्वाबों से मेरे
जो हक़ीक़त है ,
बस तुम हो...

जानो ना
सोचों में मेरे
जो वज़ाहत है,
बस तुम हो....

ढूंढों ना
वजूद में मेरे
जो 'होना' है ,
बस तुम हो...
=====================================
मायने
######
जुम्बिश-कम्पन,कुव्वत-हौसला, वज़ाहत- स्पष्टता

किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

# # #
सौभाग्य मेरा है यह बन्धु !
विरत हूँ ना लिप्त हूँ
ब्रहम सत्य, जगत तथ्य है
कमल सम निर्लिप्त हूँ
वेग आँधियों का सहने हेतु
पर्वत सम अवस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

पथ पर हूँ मैं अग्रसर
चलायमान गतिशील हूँ
नहीं दुश्चिंता गंतव्य की
किन्तु प्रगतिशील हूँ
सहज स्वयं में उपस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

परम्पराओं को मान देता
रूढ़ी-रूग्ण ना चिंतन मेरा
मेधा का कौमार्य अभंगित
प्रतिबद्ध नहीं हैं मनन मेरा,
नहीं संलिप्त भूत-भविष्य से
नव वर्तमान को समर्पित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

कामनाओं का शोषण
ह्रदय को ना क्षीण करता
आघात अंधी वासना का
अस्तित्व को ना जीर्ण करता
सहज स्वीकृति कर दोनों की
प्रसन्न मैं, नहीं व्यथित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

मेरा मौलिक सत्व बन्धु
ना हुआ अब तक है दूषित
नहीं अहम् अस्वीकार मुझ को
किन्तु नहीं अब तक कुपोषित ,
आग्रहों दुराग्रहों से बचा हूँ
सरल तरल और मुक्त हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

Tuesday, 29 July 2014

दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

(यह रचना भी कोई पच्चीस साल से ज्यादा पहले की है.)
# # # # #
तेरे मेरे शब्दों में ऐ सुन,
मेरा तेरा बिम्ब हो गया,,,,,

अनुगूँज हुई गीतों की मेरी
धरा-गगन एकत्व हो गया,
तेरे वाचन मात्र से साथी
निराकार साकार हो गया,
समा गया मेरे 'मम' में 'त्वम'
घटित त्वरित 'वयम' हो गया,,,,

तुझ से मैंने जो कुछ मैंने पाया
क्यों मैं उसको तेरा समझूँ,
जो प्रतिदान सहज स्फूर्त है,
क्यों मैं उसको मेरा समझूँ,
कागज कलम मसी सम्मिलन
अनजाने में काव्य हो गया,,,,,

तू ना होती जो संग मेरे
कैसे शब्द भाव पा जाते,
तेरी मुस्कानों बिन, ए सुन
कैसे स्वतः गीत बन जाते,
तेरे सूने नयन देख कर
दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

म्हारे मनडे री आस......(राजस्थानी)

म्हारे मनडे री आस......(राजस्थानी)

# # # #
जोवां थांरी म्हे तो उभा बाटड़ल्यां
म्हारा हिंवडे रा हार
म्हारा जीवण सिणगार
बेगा बेगा आय ने , अंग लगाओ म्हारा राज...

प्रीत आपणी जाणे इमरत ज्यूँ मधुर
म्हारे नैणा रा मिठास
म्हारे मनडे री आस
आप आयां/ सब मधरो होसी आओ म्हारा राज....

बोलो जद थे मीठो जाणे र'स भरै
म्हारे दिल रा करार
म्हारे बागां री बहार
इण सूखे बागां/ रौनक क्यूँ ना/ ल्यावो म्हारा राज..

सावणियो बरस्यो है, जाणे जुग बित्याँ
म्हारी मेघ मल्हार
म्हारी सुर झीणकार
गीत हेत रा गाय/ च्यानणी छळकी /म्हारा राज...


( राजस्थानी गीत : म्हे तो थांरा डेरा निरखण आया सा...से तर्ज़ मिलायी जा सकती है.)

(इसमें छन्द मात्रा के लिहाज़ से कुछ सुधार हो सकते हैं)

गँवा दोगे तुम यह दिन मटरगश्ती में....(भावानुवाद)

गँवा दोगे तुम यह दिन मटरगश्ती में....(भावानुवाद)

(जर्मन कवि गोएथे की एक प्रसिद्ध कविता का भावानुवाद)
# # # #
गँवा दोगे तुम
यह दिन
मटरगश्ती में
होगी कल की भी तो
यही कहानी
और होगा
अगला दिन भी
ऐसा ही
बल्कि
और ज्यादा...

अनिर्णय की
प्रत्येक अवस्था
करती है
उत्पन्न
विलम्ब अपने ही
और
नष्ट होते जाते हैं
दिन
करते हुए
विलाप
खोये हुए
दिनों के लिए....

हो ना तुम
अंतकरण से
कृतसंकल्प
दृढ प्रतिज्ञ
एवं
निष्ठावान,
पकड़ लो ना
कस कर
इसी पल को
अभी यहीं से...

निहित है
सुस्पष्टता
एवम
निर्भीकता में
प्रतिभा
सामर्थ्य
एवं
जादू सा असर....

हो जाओगे
मात्र अनुरत तो
पा लेगा
ऊर्जा
उत्साह की
मनोमस्तिष्क तुम्हारा,
तुम करो ना
प्रारंभ तो,
हो जायेगा
निश्चित ही
सम्पूर्ण
कृत्य तुम्हारा....

चमत्कार...

चमत्कार...

# # # #
देखना है
यदि चमत्कार,
लगा दो लाकर
सिंदूर
किसी बेढंगे
पत्थर पर....

बन जाएगा
देवाधिदेव ,
ठोकरों में लुढ़कता
वही पत्थर,
बढ़ जायेगा
रातों रात उसका भी
धार्मिक स्तर..

किया जायेगा
उसका
पूजन और अर्चन,
खाई जायेगी
कसमें ,
मानी जाएगी
मनौतियाँ,
पूरी की जाएगी
उसी के
इर्द गिर्द
बहुत सारी रस्में...

यारों !
सिन्दूरी
और लाल रंग में
होती है जो
जादुई बात
नहीं देखी
किसी और रंग में
वैसी कोई
चमत्कारी
करामात..

पत्ते पके हुए...

पत्ते पके हुए...

# # #
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

माना देखे थे
अंधड प्रचंड
लड़े थे ये
बन मित्र अभिन्न
किन्तु
ऋतु का यह कैसा क्रम
कर देता इन को
छिन्न भिन्न..

हुआ एक इंगित
हल्का सा
गिर पड़े
एक दूजे को ढके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

कल तक थे
सौम्य श्रृंगार
वे हुए आज
अवांछित भार
आते हैं जब
दिवस लाचार
जाते हैं बिछुड़
बन्धु दो चार ...

नहीं करती सहन
इन्हें धरा भी
अब किस दर
रहे रुके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

सालाना इनका
मरना -जीना
साथ सुख दुःख का
झीना झीना
ना हँसना इन पर
ना ही रोना
काश समझ पाए
मूढ़ मन का
कोई कोना.....

वही खिलाता
कोंपलें नूतन
गिराता है जो
पत्ते थके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

सह्प्रतिपक्ष...(अनेकांत सीरीज)

सह्प्रतिपक्ष...(अनेकांत सीरीज)

# # #
अनेकान्त का
सुन्दर सूत्र
सह-प्रतिपक्ष...

नहीं है प्रयाप्त
युगल होना मात्र,
विरोधी युगलों का
अस्तित्व है
समस्त प्रकृति में,
समस्त व्यवस्था में..

है यदि ज्ञान तो अज्ञान भी
दर्शन है यदि तो अदर्शन भी
है सुख तो दुःख भी
मूर्छा है तो जागरण भी
है यदि जीवन तो मृत्यु भी
शुभ है तो अशुभ भी
है उच्च तो निम्न भी
अन्तराय है तो निरन्तराय भी....

जीवन चलने का है
आधार
परस्पर विरोधी युगल,
समापन यदि इनका
समापन जीवन का..
आवश्यक है दोनों
पक्ष और प्रतिपक्ष,
निकम्मा है
यदि एकान्तिक हो पक्ष,
अप्रभावी है
यदि हो अकेला प्रतिपक्ष,
दोनों के योग में
निहित
जीवन का साफल्य...

मत देखो
सत्य को
एक ही दृष्टि से,
यदि देखते हो उसे
अस्तित्व की दृष्टि से
देखो ना उसे
नास्तित्व दृष्टि से भी
पाओगे तभी
सत्य की समग्रता,
स्वाभाविक है
एक ही पदार्थ के विषय में
नाना विरोधी
धारणाएं,
स्वीकृति के साथ साथ
चाहिए चलनी
अस्वीकृति भी...

============================================================

बिंदु बिंदु विचार :सहास्तित्व विरोधी हितों का...
(यह सरल कहानी उपर्युक्त प्रस्तुति की पूरक है)

# एक कुम्हार..दो बेटियाँ. एक का विवाह किसान के साथ...दूसरी का कुम्हार के साथ......एक ही गाँव में. दोनों ही खुश.

# कुम्हार गया मिलने अपनी बेटियों से.

# पहले पहूंचा किसान के घर ब्याही बेटी के पास....देखा उसे उदास...पूछ बैठा--बिटिया ! उदास क्यों ?

# कहा बेटी ने---खेती का वक़्त आ गया...बारिश नहीं...आसमां में कहीं भी बदल नहीं आ रहे नज़र...बारिश नहीं होगी तो होगी कितनी मुश्किल....आप करें ना भगवान से अर्ज़ बारिश कराये..

# कुम्हार चला वहां से और पहूंचा दूसरी बेटी के घर......... इस परिवार का पेशा माटी के बर्तन बनाना..

# बेटी ने कहा---और तो सब ठीक ठाक, बाबा. बस अलाव पक रहा है..बारिश का मौसम....अगर शुरू हो गयी बारिश तो तबाही..भगवान से करें ना आप अर्ज़....जब तक आव ना पक जाये...ना हो बारिश.

# कुम्हार ने सोचा...क्या करूँ...कौन स़ी अर्ज़ करूँ...दोनों के हित परस्पर विरोधी है....कहीं भी गलत नहीं है...एक का हित है बारिश होने में...एक का बारिश ना होने में..



# यही है परस्पर विरोधी युगल की मिसाल...सह अस्तित्व है ना इनका....:)

मेरी ही परिधि ने....

मेरी ही परिधि ने....

# # #
मेरी ही परिधि ने
मनुआ !
बारम्बार
तोड़ा था
मुझ को,
इति की
अज्ञात सम्बोधि से
उसने
जोड़ा था
मुझको,,,,,

बाँधा था
उसने मुझ को
स्नेहसिक्त अनुरोध से
या किसी अवरोध से
या किसी प्रतिरोध से
या किया था
विचलित मुझको
स्थिर अस्तित्व बोध से,,,,,,,

ढाला था
उसने मुझको
थोड़ा सच्चा ,
थोड़ा झूठा
देकर कोई आकार अनूठा
सर्वमान्य प्रतिरूप में
या किसी अनुरूप में
या किसी प्रारूप में,,,,,,,

तोड़ दी है
परिधि मैने
बिना किसी प्रतिकार के,
जोड़ा है
अब स्वयं को
विराट से
विस्तार से
समग्र के स्वीकार से,,,,,,,,

मेरा तिरोहित जब
'तू' हुआ,
अंधकारमय
जीवन में मेरे
चहुँ ओर आलोक हुआ
निखर गया
ह़र कोना कोना
पूर्ण ने ज्यों
मुझ को छुआ,,,,,,,

खंडहर या मानवीय मूल्य

खंडहर या मानवीय मूल्य

# # # #
खजुराहो
अजंता-एलोरा,
विजय स्तम्भ
दिलवाडा मंदिर
अशोक के शिलालेख
ऐसे ही कुछ अवशेष
अथवा
नालंदा-तक्षशिला के
खंडहर,
मात्र पाषाण नहीं ....
वे तो हैं
उन्ही मौलिक
मानवीय मूल्यों के
प्रतीक चित्र,
जिन्हें कर चुके
क्षतिग्रस्त
हम स्वयं
अपने हाथों...

बादल जब मन हो तब बरसे...

बादल जब मन हो तब बरसे...

#####

आतुर मन काहे को तरसे,
बादल जब मन हो तब बरसे,
एक खेत सूखा रह जाये
दूजा हरा भरा हो सरसे...

उत्तर नहीं बहुत प्रश्नों का
क्यों दूर जा रहा तू घर से,
जी ले पूरा जीवन हंस कर
रहे व्यथित क्यों वृथा डर से...

कर कर संग्रह उलझ रहा तू,
क्यों ना लुटा रहा तू कर से,
अपनों से तू तोड़ रहा है,
नेह लगा रहा क्यों पर से.

कुछ गिले फिर से...

कुछ गिले फिर से...

#######


सरकशी के हैं सिलसिले फिर से
हो गए उनको कुछ गिले फिर से.

हम को मरहम भी जब नहीं हासिल
ज़ख्म क्यूँ आज हैं खुले फिर से.

दिन वही गुरबतों के लौट आये
लुट गए दिल के काफिले फिर से.

किस्से चाहत के बस अधूरे हैं
चन्द उभरे हैं फासले फिर से.

बेमुरव्वत हवा चली ऐसी
के कवँल कम से हैं खिले फिर से.

पर्दा महफ़िल का अब गिरा दो ज़रा
सांप आस्तीं में हैं पले फिर से.

कहदे काशिद उन्हें तू यूँ जा कर
घर किसी के हैं अब जले फिर से.

देके झूठी कसम रवायत की
कैसे यारब वो हैं टले फिर से.

सरकशी-टेढ़ापन

मुलाक़ात होती रही.......

मुलाक़ात होती रही...
# # # #
ह़र करवट पे मुलाक़ात उनसे होती रही
बन्द होठों से दिल की ह़र बात होती रही.
इस तरफ थे या उस जानिब क्या जाने
ह़र छुअन में हासिल इनायात होती रही
.
जबींसाई थी के जबीं को चूमना उनका,
ईमा ईमा में बरपा इल्तिफात होती रही.
गुलाबी चादर थी के गुलाब ख्वाजा के ,
घुल के दो से यक,दो बसीरात होती रही.
ना भीगे थे जिस्म बस हुई थी नम आँखें
नवाजने रूह को कैसी बरसात होती रही.
(जबींसाई =नम्रता से माथा टेकना, जबीं =ललाट, ईमा= संकेत,बरपा=उपस्थित
इनायात=मेहरबानियाँ,इल्तिफात= कृपा,बसीरात=अंतर-दृष्टियाँ,प्रतिभाएं,
नवाजना =सम्मानित करना.)

वसंत-विरह

वसंत-विरह

#######
जड़ें वही
तने वही
द्रुम वही
हो रहे हैं
नव पल्लव
गिरा कर
पुरातन पत्तों को ,,,

हो रहा है
महोत्सव सुरंगा
वन-उपवन के
आँगन में ,,,

रंगीला बसंत
उकेर रहा है
सुन्दर बेल बूटे
हिना से
कुदरत की
हथेली पर ,,,

दिलकश महक
भर कर खुद में
देखो ना
सुखद पवन
कर रही है नर्तन ,,,

छेड़ी हैं टेर
मधुर मिश्री सी
गायक
पखेरुओं ने ,,,

नाच रही है
पीपल की
ताम्बई कोंपलें
संग
सूरज की
सुनहरी किरणों के ,,,

हरियल सुए
उड़ रहे हैं लेकर
सुर्ख चोंचों में
माणक से दाने
अनार के ,,,

चंचल हरिण
भर रहे हैं
कुलांचे
दबाये मुंह में
कच्ची दूब को ,,,

प्यासा प्रेमी
भ्रमर
उनींदी कली के
कानों में
फुसफुसा रहा है
बोल प्रेम के ,,,,

चांदी सी
चांदनी रात में
किसी अलगोजे ने
छेड़ी है
विरह तान,
सुन कर जिसे
बिलख रही है धरती
सिसक रहा है आसमान ,,,

(राजस्थानी लोकगीतों से प्रेरित )

आ गए फिर जहां हुआ करते थे पहले.....

आ गए फिर जहां हुआ करते थे पहले.....

# # # # #

भ्रम में हम यारों ,जिया करते थे पहले
आ गए फिर ,जहां हुआ करते थे पहले.

तृष्णा उभरी थी छलिया यौवन बन के
मतिभ्रम हमको कुछ ऐसे हुए थे पहले

अश्रु आ जाते हैं सोच के ही इसको
आख़िर क्यों तुम से हम ऐसे जुड़े थे पहले.

सज के रह गए फूलदानों में हम तो
अंतस के खिले पुष्प हुआ करते थे पहले.

सिर है कांधों पे या नश्वर माटी कोई
ज्ञानी हम पुकारे जाया करते थे पहले.

गिरे हैं गगन से और अटके खजूर में
चने के झाड़ पे जो चढ़े हुए थे पहले

एकाकीपन ही अब मेरा सहोदर है
सम्बन्ध ऐसे प्यारे कहाँ हुए थे पहले.

खुली है नींद और चेतना लौट आई
बिखरे हैं स्वप्न सगरे जो देखे थे पहले.

माँ सरस्वती मन्त्र...(भाव-प्रस्तुति)

माँ सरस्वती मन्त्र...(भाव-प्रस्तुति)

# # # # # # #

माँ सरस्वती !

धवलवर्णा परम सुंदरी तू माँ

ज्यों कुंद पुष्प सम श्वेत चंद्रा,

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ

तुषार सम गलमाल शुभ्रा,

आसीन श्वेत पद्म आसन पर,

वीणा विराजित ले भुज सहारा,

सुर पूजित मातेश्वरी !

करते नमन तुम्हारा,

तिरोहित हो तन्द्रा , जननी !

ह़र दो अज्ञान तिमिर हमारा...

(कुंद पुष्प=चमेली/जूही के फूल)

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(या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डित करा या श्वेत्पद्मासना ।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥)

अब फना मुझे हो जाना है

अब फना मुझे हो जाना है

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बचना किसको है ऐ मौला
अब फना मुझे हो जाना है
अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.....

तू मुझ में है मैं तुझ में हूँ
किस बात में तुझ से मैं कम हूँ ,
मैले तन मन को उजला कर
मोहे तुम से मिलने जाना है....

इर्ष्या विद्वेष को जीत सकूँ
भय लोभ से खुद को रीत सकूँ,
मोह और प्रेम का भेद जान
मोहे तुम से प्रीत लगाना है.....

बिरहा में मैं हूँ बिलख रहा,
बस राह तिहारी निरख रहा,
मिल जा आकर के तू जानां
मैं राधा हूँ तू कान्हा है.....

अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.

('उठ जाग मुसाफिर भोर भई ' की तर्ज़ पर गुनगुना के देखिएगा :))