चार द्वार
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अयोध्या में व्याप्त शांति और शांत चित्तता के मध्य
कुंवर राम ने देखे थे निशान दुख के जन मानस में,
सोचते थे राम :
क्या अर्थ है उस जीवन का जो भरा हुआ हो दुखों से ?
कैसे हुआ जाय मुक्त जीवन के गमनागमन की पुनरावृत्तियों से ?
क्या संभव है मोक्ष और कैसे ?
पिता दशरथ की आज्ञा ले कर ऋषि विश्वामित्र ले आये थे राम को सप्तऋषियों में एक ऋषि वशिष्ठ के पास जिन से राम को जीवन का मार्गदर्शन मिला.
वशिष्ठ और राम के इस संवाद में गहन दार्शनिक विवेचन और संकेत थे जिन को राम ने अपनाया. ऋषि वाल्मिकी ने इस संवाद जिसे "योग वशिष्ठ" कहा जाता है उसकी केंद्रीय थीम को लिपिबद्ध किया.
मैं इस संवाद की अपने लिए अपनी समझ को शेयर कर रहा हूँ. ना तो यह किसी शास्त्र की व्याख्या है ना ही कोई शब्दानुवाद या भावानुवाद. बस अपने को एक स्वान्तः सुखाय संबोधन. जिसको जितना अनुकूल लगे अपना ले अन्यथा इग्नोर कर दें. 💚💜❤️🙏
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आत्मबोध तक पहुँचने हेतु
गुजरना होगा चार द्वारों से :
शांति
संतोष
सत्संग
स्व-चिंतन
पहला द्वार : शांति
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शांत है जिसका मन
होता है वह स्वतंत्र द्वन्दों से :
यथा पसंद-नापसंद,लगाव-दुराव,
सुख दुख...
बने रह कर होशमंद
अपनाते हुए साक्षी भाव
ला सकता है मानव
संतुलन और समग्रता
अपनी मनःस्थितियों में,
हो सकता है योग और ध्यान एक नुस्ख़ा
शांत मनस्थिति हासिल करने का...
दूसरा द्वार : संतोष
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पा लें प्रसन्नता संतुष्टि में,
नहीं है चिर आनंद अर्जन और संग्रहण में
आनंद है अनावश्यक के विसर्जन में
सर्वोत्तम है रहना संतुष्ट
'जो कुछ है पास अपने' से...
उचित है होना उमंगी
अपने उच्च लक्ष्य को पाने को
किंतु नहीं है प्रसन्न हम
जो पहले से प्राप्त है उस से
और रखते हैं लोभ
अधिक और अधिक पाने का,
पायेंगे हम कुछ भी नहीं
सिवा अफ़सोस के...
तीसरा द्वार : सत्संग
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साथ सहृदय, संवेदनशील
सुबुद्धि धारी, सकारात्मक, रचनात्मक लोगों का
करता है मुक्त मतिभ्रमों से
आती है जागरूकता इस से
करती है जो प्रशस्त
मार्ग आध्यात्म का
पथ स्व-मुक्ति का...
चतुर्थ द्वार : स्वचिंतन
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यदि लें लौकिक अर्थों में
करना निरंतर अवलोकन
स्वयं के विचारों और कलापों का
करते रहना संशोधन कस कर उन्हें
उपयुक्त-अनुपयुक्त की कसौटी पर
कहा है लिन यूतांग(*) ने :
मिटाते रहो व्यर्थताओं को...
देखें यदि आध्यात्म की दृष्टि से
अवलोकन में अंतर्निहित होगा :
उतरना अंतर की गहराई में
करते हुए जिज्ञासा : कौन हूँ मैं ?
मिलेगा उत्तर :
नहीं हूँ मैं देह, ना ही मन
देह तो होगी समाप्त एक दिन
मन है गठरी विचारों की
हम तो हैं अजर अमर आत्मा
जिसमें निहित है
चेतना हमारे अस्तित्व की...
(*)
"The wisdom of life consists in the elimination of non-essentials."--Lin Yutang (Chinese/Taiwanese Philosopher)