Monday, 17 June 2024

चार द्वार

 चार द्वार 

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अयोध्या में व्याप्त शांति और शांत चित्तता के मध्य 

कुंवर राम ने देखे थे निशान दुख के जन मानस में,

सोचते थे राम :


क्या अर्थ है उस जीवन का जो भरा हुआ हो दुखों से ?

कैसे हुआ जाय मुक्त जीवन के गमनागमन की पुनरावृत्तियों से ?

क्या संभव है मोक्ष और कैसे ?


पिता दशरथ की आज्ञा ले कर ऋषि विश्वामित्र ले आये थे राम को सप्तऋषियों में एक ऋषि वशिष्ठ के पास जिन से राम को जीवन का मार्गदर्शन मिला. 


वशिष्ठ और राम के इस संवाद में गहन दार्शनिक विवेचन और संकेत थे जिन को राम ने अपनाया. ऋषि वाल्मिकी ने इस संवाद जिसे "योग वशिष्ठ" कहा जाता है उसकी केंद्रीय थीम को लिपिबद्ध किया.


मैं इस संवाद की अपने लिए अपनी समझ को शेयर कर रहा हूँ. ना तो यह किसी शास्त्र की व्याख्या है ना ही कोई शब्दानुवाद या भावानुवाद. बस अपने को एक स्वान्तः सुखाय संबोधन. जिसको जितना अनुकूल लगे अपना ले अन्यथा इग्नोर कर दें. 💚💜❤️🙏


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आत्मबोध तक पहुँचने हेतु 

गुजरना होगा चार द्वारों से :


शांति 


संतोष 


सत्संग 


स्व-चिंतन 


पहला द्वार : शांति 

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शांत है जिसका मन 

होता है वह स्वतंत्र द्वन्दों से :

यथा पसंद-नापसंद,लगाव-दुराव,

सुख दुख...


बने रह कर होशमंद 

अपनाते हुए साक्षी भाव 

ला सकता है मानव 

संतुलन और समग्रता 

अपनी मनःस्थितियों में,

हो सकता है योग और ध्यान एक नुस्ख़ा 

शांत मनस्थिति हासिल करने का...


दूसरा द्वार : संतोष 

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पा लें प्रसन्नता संतुष्टि में,

नहीं है चिर आनंद अर्जन और संग्रहण में 

आनंद है अनावश्यक के विसर्जन में 

सर्वोत्तम है रहना संतुष्ट 

'जो कुछ है पास अपने' से...


उचित है होना उमंगी 

अपने उच्च लक्ष्य को पाने को

किंतु नहीं है प्रसन्न हम 

जो पहले से प्राप्त है उस से 

और रखते हैं लोभ 

अधिक और अधिक पाने का,

पायेंगे हम कुछ भी नहीं 

सिवा अफ़सोस के...


तीसरा द्वार : सत्संग 

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साथ सहृदय, संवेदनशील 

सुबुद्धि धारी, सकारात्मक, रचनात्मक लोगों का 

करता है मुक्त मतिभ्रमों से 

आती है जागरूकता इस से 

करती है जो प्रशस्त 

मार्ग आध्यात्म का  

पथ स्व-मुक्ति का...


चतुर्थ द्वार : स्वचिंतन 

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यदि लें लौकिक अर्थों में 

करना निरंतर अवलोकन 

स्वयं के विचारों और कलापों का 

करते रहना संशोधन कस कर उन्हें

उपयुक्त-अनुपयुक्त की  कसौटी पर 

कहा है लिन यूतांग(*) ने :

मिटाते रहो व्यर्थताओं को...


देखें यदि आध्यात्म की दृष्टि से 

अवलोकन में अंतर्निहित होगा :

उतरना अंतर की गहराई में 

करते हुए जिज्ञासा : कौन हूँ मैं ?

मिलेगा उत्तर :

नहीं हूँ मैं देह, ना ही मन 

देह तो होगी समाप्त एक दिन 

मन है गठरी विचारों की 

हम तो हैं अजर अमर आत्मा 

जिसमें निहित है 

चेतना हमारे अस्तित्व की...


(*)

"The wisdom of life consists in the elimination of non-essentials."--Lin Yutang (Chinese/Taiwanese Philosopher)

Monday, 22 April 2024

पुरानी डायरी

 

पुरानी डायरी 

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टटोलते टटोलते 

एक भूले बिसरे दराज को 

मिली है आज एक डायरी पुरानी 

जर्जर हो गई है 

कुतर भी डाला था चूहों ने 

मेरी ख़ुद की ख़रीदी मुफ़लिसी के दिनों में,

जिल्द जैसे घायल जिस्म हो 

युद्ध में लड़े थके फ़ौजी का 

पन्ने उसके पीले और बदरंग 

मेलन्यूट्रिशन, एनीमिया या डिप्रेशन के 

शिकार इंसान की चमड़ी जैसे 

कहीं कहीं टूटे हुए 

और कहीं तो फटे हुए भी 

सूख कर और पुराने पड़कर 

इतने कमज़ोर 

कि पलटने से ही कोई टुकड़ा 

अलग होकर हाथ में आ जा रहा है...


कुछ कुछ सफ़हों में लिखा हुआ 

तो ज़्यादातर ख़ाली 

ख़ाली पन्नों पर ऐसे ऐसे दाग 

किसी  इंसान के बोलते,रोते, हंसते चेहरों से 

या कोई जानवर के अक्स से 

या रेगिस्तान की पीली आँधी से,

बरकरार  है मगर 

गाढ़ी काली स्याही से लिखे हर्फ़

जो दिल और ज़ेहन की हालत 

या नफ़सियाती दौरों के असर से 

कभी खूबसूरत, कभी लड़खड़ाते,

कभी उदास, कभी उदासीन 

कभी चहकते, कभी चिड़चिड़े

कभी थमे हुए तो कभी भगौड़े हैं...


देखे जा रहा हूँ 

इस हासिल को

कर रहा हूँ महसूस 

कभी छूकर, कभी सोच कर 

कह रहा हूँ मन ही मन

"जाने कहाँ गए वो दिन ?"

Wednesday, 22 November 2023

अर्धनारीश्वर : मेहर

 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस पर 

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अर्धनारीश्वर...

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पा चुका है समर्थन 

विज्ञान और मनोविज्ञान का 

बुनियादी सिद्धांत अर्धनारीश्वर का...


कहानी पौराणिक है 

बाँट दिया था अपनी काया को 

दो हिस्सों में 

ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के क्रम में,

'का' बना पुरुष 'या' बनी स्त्री 

मनु और शतरूपा 

और 

बने दोनों मूल इस मैथुनी सृष्टि के

उत्पति हुई इस धरा पर मानव की 

दोनों के मेल से...


नहीं है संपूर्ण स्वयं में

अकेला  पुरुष या स्त्री अकेली,

पश्चात अपनी रचना के 

भटक रहा है पुरुष

तलाश में अपने आधे हिस्से की,

आधे हिस्से की उपलब्धि का सुख

टुकड़ों टुकड़ों में

मिलता है उसे कभी मां में

कभी बहन में, कभी प्रेमिका में, 

कभी जीवन संगिनी में 

कभी स्त्री मित्रों में

चैन किंतु फिर भी नहीं...


नहीं मिट पाता है ताउम्र 

यह एहसास अधूरेपन का,

तलाश संपूर्णता की 

पूरी होगी उसके अपने अंदर ही,

महत्वपूर्ण है 

धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष से भी...

अपने भीतर के स्त्रीत्व से साक्षात्कार...


पहचान लेगा पुरुष जिस दिन 

अपने भीतर की स्त्री को 

और उतार लेगा अपने जीवन में 

उस जैसा प्रेम, ममत्व, कोमलता और करुणा 

हो जाएगी पूरी तलाश उसकी स्वयं की,

निहित है इसी में 

हल उसके अंतर की ऊहापोह का 

और दुनिया की समस्याओं का भी,

नहीं करनी होगी उसे आकांक्षा  

पृथ्वी से इतर किसी स्वर्ग की

होकर मुक्त हिंसा, क्रूरता और निर्ममता से 

बन जाएगी स्वर्ग स्वयं यह दुनिया...

Saturday, 18 November 2023

मैं हूँ कि तुम हो : धर्मराज भाई


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"मैं हूँ कि तुम हो" बड़ी ही प्यारी सूफियाना नज़्म है धर्मराज भाई की, उस पर ये दो Couplets मैं कमेंट्स में extempore लिख पाया.

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तबर्रुक हो मुबारक 

जल जल कर बुझने वाले,

हिद्दत भी है यक तजुर्बा 

राज ए हसरत छुपाने वाले...


सहारे होते हैं बहाने 

होता मतीन वजूद ही किसी का, 

भटका कोई छड़ी लेकर 

मगर रास्ता था उसी का...


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तबर्रुक=प्रसाद (जैसे मंदिर में मिलता है)

हिद्दत=उग्रता/ ऐंठन/प्रकोप 

मतीन=महत्वपूर्ण, गंभीर 


नज़्म में भी पहले दो अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं.



मैं हूँ कि तुम हो 

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होके फ़लक सा ओझल 

ज़रा सा ये जो नज़र आता हूँ 

पत्थर के मानिंद 

मैं नहीं हूँ 

तुम्हीं हो 

रख छोड़ा है अनजाने में तुमने खुदी को 

मेरी शक्ल में 

कि एक दिन ज़िंदगी के थपेड़ों ठोकरों से लुढ़कते लुढ़कते 

तुम्हें किसी अनहुए से हुए सहारे की दरकार होगी 


ये जो तुम खूब नज़र आते हो 

मौजे हिद्दत के माफ़िक़ 

मैं ही हूँ जो 

मैं सा बुझकर 

तुम सा धधक उठा हूँ लेकर हुनर बुझन का

कि एक दिन 

चख सकूँ तबर्रुक

तुम होकर भी बुझ चलने का 


मैं तुम हूँ मेरी शक्ल में 

कि तुम मैं ही हो तुम्हारी शक्ल में 

ज़िंदगी का ये राज बयाँ 

कर करके भी क्या ख़ाक करिए 

कभी ये राज बयाँ हो ही न सका होने का 

जो बयाँ हो गया 

कहाँ वो राज फिर राज रहा 


                                        धर्मराज 

                                  02/10/2023

संबंध : आकृति

 सम्बन्ध

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सम्बन्धों में बातें होती है 

एकत्व की, विलय की 

एक प्राण दो देह की 

आत्मिक जुड़ाव की 

और भी बहुत से 

मुहावरे और कहावतें 

किंतु क्या संभव हुआ है 

दो व्यक्तियों का एकमेव हो जाना ?


बहिरंग में देखें तो 

आकार प्रकार अलग 

आँखों की पुतलियाँ अलग 

उँगलियों के निशान अलग 

अंतरंग में देखें तो 

आत्मा अलग 

जीव अलग 

पूर्वजन्म की योनि अलग 

ऋण बंधन और कर्म बंधन अलग....


सम और बन्ध

मिलकर बना है सम्बन्ध

अपेक्षा है सम की 

व्यवहार में 

अनुभूति में 

अभिव्यक्ति में 

मुखर हो या मौन 

किंतु मूल में दीर्घ काल में 

सम को करना होगा मैंटेन 

विषमता है घातक संबंधों के लिए....


आदान प्रदान 

अंडर करंट है संबंधों का 

परस्पर आदर 

एक दूजे को स्पेस देना 

आपसी समझ और सहनशीलता 

सीमाओं की विवेक सम्मत स्वीकृति 

यही तो बनाए रखता है रिश्तों को....


हम तुम एक हैं 

वादा करते हैं ज़िंदगी भर साथ रहेंगे 

हमेशा वफादार रहेंगे 

बहुत सुंदर मिशन स्टेटमेंट 

प्रतिबद्धता, निष्ठा से निबाहना 

ऐक्शन प्लान 

सहजता, अकारणता, प्रयासरहित 

शब्द पलायन है सच से 

एक जाना अनजाना षड्यंत्र 

किसी को टेकन फॉर ग्रांटेड लेने का....


मानवकृत होते हैं सम्बन्ध 

मान भी लें कि ताल्लुक़ है उनका 

जन्म जन्मांतरों से 

लेकिन इन्हें जीना तो होता है हमें 

दिन प्रतिदिन here and now

ठीक वैसे ही जैसे 

ख़ाना पीना, सोना जागना 

साँस लेना, नित्यकर्म पूरे करना 

ड्रेस अप होना, बीमार और स्वस्थ होना 

पढ़ना, अर्जन सृजन विसर्जन करना 

ये सब हम जब सप्रयास करते हैं 

तो रिश्तों में क्या है ऐसा 

जो जारी रह सके बिना श्रम के ?

जय भवानी : आकृति

 "जय भवानी"

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इतिहास गवाह है 

कि बहादुर क्षत्रियों ने 

"जय भवानी" 

उद्घोष संग युद्धों में 

दुश्मन के छक्के छुड़ाए थे...


इतिहास इस बात का भी गवाह है 

क्षत्राणियाँ साक्षात भवानी बन 

आन बान और शान के लिए 

जौहर जी ज्वाला में 

अपनी आहुति हंसते हंसते दे देती थी...


"चुण्डावत माँगी सैनाणी

सिर काट दे दियो क्षत्राणी" की 

कहानी नहीं है अनजानी 

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई 

आज़ादी की अनुपम दीवानी 

रानी दुर्गावती थी ऐसी वीरांगना

छोड़ी है जिसने अमिट निशानी...


ले ली है करवट समय ने 

बदल गई सारी अवस्थाएँ 

प्रजातंत्र अब देश हमारा 

विगत हुईं राजतंत्र व्यवस्थाएँ 

किंतु हम वीरांगनाओं को 

वही साहस दिखलाना  है 

नारी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ 

और 

स्त्री सशक्तीकरण के लिए 

बुलंद आवाज़ उठाना है 

"जय भवानी" की गूंज के साथ 

विजय श्री को पाना है...

खोया हुआ महबूब...

 खोया हुआ महबूब 

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बरसों के अंतराल के बाद 

छुआ है तुम को 

कितने बदल गये हो,

कहाँ गया कच्चापन-अधूरापन 

नहीं नज़र आ रहा है वो अल्हड़पन !!


दिख रहा है सब कुछ सुघड़ सा 

सजा धजा सा

कंसीलर ने ना जाने क्या क्या छुपा दिया है 

यह सीरम, फाउंडेशन और उस पर 

ज्यूँ परत हो फेस क्रीम की 

पूरी देह पर जैसे 

गहरा बॉडी लोशन मल लिया है 

वैक्सिंग, मैनीक्योर,पेडि-क्योर ने 

स्मूथ कर दिया है सब कुछ 

हेयर स्टाइल बिलकुल बदल गई है 

ऑई लाइनर ने आँखों की गहराई बढ़ा दी है 

लिप-कलर ने ज्यूँ होठों में जान भर दी है 

उभारों को सुडौल दिखाने 

ज्यूँ पैडेड सपोर्ट पहना है 

एक अपरिचित सी तेज़ गंध फूट रही है बदन से

शहरी बाबूओं की नज़रों में 

सेक्सी हो गये हो तुम

लेकिन मैं ठहरा गवईं, 

मुझे तो लग रहे हो तुम 

एक सजी सँवरी बेजान मूरत से 

सच कहूँ नितांत अजनबी से लग रहे हो तुम !!


अचानक दिल में एक टीस सी उठी है 

आँखों से पैनाले बह चले हैं 

तुम हाँ तुम....कोई और हो

खोज रहा हूँ मैं तो 

अपने खोये हुए महबूब को !!


(महबूब से मतलब अपने गाँव से है)