मन वीणा को सुर देकर....
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ना मिला था कोई अब तक
जिसे स्वप्न मेरे बतलाता
जीकर संग में ही उसके
साकार उन्हें कर पाता,,,,,,
बना रहा मैं साधन
करने पूरे औरों के सपने
बहुत आये थे जीवन में
बन बन कर के अपने,,,,,
आदर्शों और वादों के खातिर
घुलता रहा था प्रतिपल
देख नहीं पाता कभी भी
हो नयन किसी के सजल,,,,
तले एहसानों के बीता था
मेरा अल्हड बचपन
पाकर कुछ भी न पाया
था ऐसा मेरा जीवन,,,,,,
जी करता मुक्त हवा में
साँसे अपनी मैं ले लूँ
अपनी मर्ज़ी से मैं भी
जीवन अपना जी लूँ,,,,,,
माप सकूँ पहाड़ों को
नदी सागर सारे पी लूँ,
राह गली सब चल देखूं
संग पवन के मैं भी उड़ लूँ,,,,,,
हो कोई ऐसा जो मुझ को
आसमान दिखलाये
मोहे अपना सब कुछ देकर
मेरा सब कुछ पा जाये,,,,,
अल्हड़ कच्चेपन का
स्वाद मुझे चखाए
हंस हंस कर मुझे हंसाएं
फिर मुझ में ही छुप जाए,,,,,
नयी शरारत सीखला कर
बचपन मेरा लौटाए
एक छोटा सा नाम दे मुझको
और उससे मुझे बुलाये,,,,,,
मेरी हर रचना में दिखे
भाव मेरे बन जाए
नहीं अकेला,
है संग में कोई
एहसास यही दिलाये,,,,,
हर शै की नज़रों से बच कर
पास मेरे वो आये
फिर आने का वादा कर के
कभी लौट ना पाये,,,,,
मेरे नयनों के उष्ण नीर को
खुद ही वो पी जाए
शीतल अमृत देकर मुझ को
सरसे और सरसाये,,,,,
मेरे घावों पर अपनेपन की
मरहम वही लगाए
जब भी भटकूँ हाथ पकड़ कर
राह वही दिखलाये,,,,,
दस्तक हुई मेरे दर पर
मैंने जांचा और परखा
मिली ज़िन्दगी मुझ को
हुई थी ऐसी बरखा,,,,,
आज उसी आह्लाद को लेकर
हर पल मैं जीता हूँ
ले खुशबू उन फूलों की
अमृत विष सब पीता हूँ,,,,,,
मन वीणा को सुर दे कर
अपना जीवन जी लेता हूँ
क्षण क्षण के जीवन में
कुछ लेता और देता हूँ ,,,,,