Friday, 24 July 2015

चुगलखोर : विजया



चुगलखोर
+ + + +
पुरुष ने
ना जाने क्यों
तुलना की नारी की
खाद्य पदार्थों से,
शायद समझा उसे
सदा ही भोग की
एक वस्तु
औ जोड़ डाला उसके

स्वाद को
नमक से...

लवण से बना
लावण्य,
और किया जाने लगा
प्रयोग इसका जताने
नारी के सौन्दर्य को
कहेंगे कभी
नमक है इसके चेहरे पर
तो कभी
फीकी फीकी सी है
बेस्वाद
बिना लवण की...

थोडा और
तोडा मरोड़ा
बन गया यही शब्द
'लुनाई'
लेकर इसी को
अच्छी और ख़राब
लगने लगी
मर्द को लुगाई,
सुना है मैंने
करते हुए 'मेल-टॉक'
चंद लोगों को
जो भरते हैं दंभ इसमें
अमुक को खाया
या खूब खाया..

चुगली खा जाते हैं
शब्द भी होले से
जब भी जाती है
तवज्जो
हो जाती है कोफ़्त
पुरुष-प्रधान समाज की
सोचों पर
नज़रिए पर
तौर-तरीकों पर...

जिम्मा तोहमतों का...: विजया

जिम्मा तोहमतों का...
+ + +
ले लिया था
हमने
सर अपने
जिम्मा तोहमतों का
क्यूंकि
लिखा था
कुछ और ख़त में
और
कासिद
कहे जा रहा था
दूसरा कुछ
मजबूर था
या खुदगर्ज़
या गुलाम
इंतेजामिया का,
उगले जा रहा था
कर कर के मतली,
निगला था
जो भी उसने
संग माशरे के...

तमाशबीन : विजया

तमाशबीन
+ + + +
साहिल पर
डटे हो
बनकर
तमाशबीन
दूरबीन लिए,
जानोगे तुम कैसे
हकीकत तूफां की,
जुझोगे नहीं
गर उस से
लेकर मौजों को
आगोश में....

ज़िन्दगी
नहीं है
देखते रहना
नजारों को
बचा कर
खुद को,
ज़िन्दगी नाम है
जीने का
पुर जोश
पुर होश....

ज़िन्दगी नहीं है
औरों के
बनाये
नक़्शे कदम पर
चलना,
जिंदगी नाम है
करते रहना
खुद ब खुद
जो भी करना है
तुम को...

बचा सकते हैं
बहाने महज
औरों से
तुझ को,
क्या होगा
जब तुम
चुराने लगोगे
नज़र
हर लम्हे
खुद से...